जब वो घर के बाहर निकलती है मुहल्ले के बच्चों के बीच खेलने के लिए अनगिनत बार झाँक-झाँककर देखती रहती हूँ। पूरी देह ढक सके ऐसे कपड़े पहनने पर जोर देती हूँ वो चिड़चिड़ाने लगती है,
" मम्मा इतनी गर्मी है फुलस्लीव्स नहीं पहनेगे हम"
पर पुचकार कर दुलारकर किसी तरह मना लेती हूँ।
जब भी कोई बड़ा लड़का,मुहल्ले के भैय्या, अंकल या दादाजी उसके गालों को स्नेह से दुलराते हैं हँसकर उसे छेड़ते हैं तो मन में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगता है। अपना सारा अनुभव उनकी हरकत उनकी मंशा को समझने में लगा देती हूँ खोद-खोदकर बिटिया से पूछती हूँ उन्होंने क्या कहा?
वैसे तो वो ख़ुद ही दूसरों से कुछ नहीं लेती पर किसी ने कुछ दिया तो घर लाकर खाना ,सबसे पहले मुझे दिखाना ऐसा सिखाया है उसे।
मुहल्ले के आस-पास के दुकान पर कोई सामान लाने के लिए भी जाने नहीं देती। चाहे बिना नमक के खाना बन जाये या विषय की कॉपी के बगैर वो स्कूल चली जाय।
"मम्मा रोहण,मोहित,शानू सब तो जाते हैं हमको भी जाना है बड़े मैदान में साईकिल चलाने पर मैं कठोर बनी उसकी आँसुओं की परवाह नहीं करती,बस यही कहती हूँ नहीं जाना मतलब नहीं जाना..वहाँ तुम मेरी नज़रों से दूर रहोगी और हम टेंशन में।"
ऐसी अनगिनत बातें हैं पर बेटी की अस्मिता की चिंता ने एक माँ के मन की सोच को संकुचित कर दिया है। मेरी तरह और ही माँ हैं जो अपनी नन्ही परी की उडान बाधित नहीं करना चाहती पर मजबूर है। क्या करुँ मैं अपनी सोच को एक दायरे में सीमित कर लिया है मैंने। आये दिन समाज में मासूम बेटियों के साथ होने वाली अमानवीय घटनाओं,जघन्य कृत्यों,रोंगटे खड़े करने वाले सामाचार और तस्वीरों ने बेटी की सुरक्षा के प्रति आशंकित कर दिया है।
"आखिर एक बेटी की माँ हूँ मैं।"
मुझे कोई तो समझाये दो और पाँच साल की मासूम बच्चियाँ कैसे उकसाती होगी वासना ? ऐसे दुश्कृत्यों को करने वाले मानसिक रोगी के लिए समाज में कोई स्थान न हो ये तय करना समाज का काम है क्योंकि सड़े अंग को काटकर हटाने से ही शरीर इन्फेक्शन से मुक्त हो सकेगा। कितने कठोर मन के होते हैं न वहशी जिनका मन मासूम चीखों से नहीं पिघला होगा।इन्सानियत,मानवता सब बकवास लगने लगा है।बात तो हिंदू या मुसलमान की भी नहीं है क्योंकि इंसान के मन के विचार किसी भी धर्म और जाति से ऊपर है। मानसिक कलुषिता जाति धर्म का टैग लगाने से नहीं कम हो सकती है।बात है हमारे समाज के मूल्यों के पतन की। किस दिशा में जा रहे हैं हम????
#श्वेता
ऐसे लोग दिशाहीन हैं ।
ReplyDeleteसच माँ का डर ऐसा ही होता है बेटियों के लिए ।
सही कहा आपने बेटियों की उड़ान में बाधा बन रही हैं हम माँएं । समाज के इन भेड़ियों ने हमें इस कदर मजबूर जो कर दिया है ।समझ नहीं आता बेटियों के सवालों का उन्हें क्या जबाब दें ।क्या ये घिनौना सच उनके आगे रखें उनके आगे । नहीं तो फिर गंदी मम्मा ! का सम्बोधन सुनकर खुद में दुखी रहें ।
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