किसी त्योहार ,पूजा के अवसर पर पंडालों से लेकर गली मुहल्लों तक , लगभग एक-सा उबाऊ और नीरस कानफोड़ू लाउडस्पीकर पर बजते गानों की तरह "हिंदी दिवस"के शोर से दिल-दिमाग लगभग शून्य हो गया है।
हिंदी दिवस !हिंदी दिवस! हिंदी दिवस!
यह जाप करने से हिंदी का उद्धार अगर संभव होता तो फिर क्या कहना था।
सदियों से आतातायियों की संस्कृति को पोषित और आत्मसात करते हुये, जबरन थोपी गयी उनकी सभ्यता को हमने समय के साथ अपनी संस्कृति की आत्मा में मिला लिया सालों जीते रहे वैसे ही अब परिवर्तन की माला फेरने से कुछ कैसे बदल सकता है??
पेड़ के पत्तों पर कीटनाशक का छिड़काव करने से
समस्या का समाधान कैसे संभव जब जड़ ही संक्रमित हो।
आज़ादी के पहले अंग्रेजों का शासनकाल रहा,उनके जाने के बाद देश के भविष्य निर्माताओं के द्वारा हिंदी राजभाषा बनाकर संविधान में लागू कर दिया गया और जिम्मेदारी समाप्त हो गयी। पर क्या शिक्षा व्यवस्था में हिंदी को मजबूत करने का कोई प्रयास किया गया? शिक्षित सुसंस्कृत और कुलीन व्यक्ति की पहचान ही अंग्रेजी बनने लगी। हमारी शिक्षा-व्यवस्था में अंग्रेजी को जितनी आत्मीयता मिली हिंदी उतनी ही पिछड़ती गयी। अंग्रेजी माध्यम के
स्कूलों की जड़ों को और गहरा करके, संरक्षित और पोषित किया गया। कुकुरमुत्तों की तरह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने लगे और अंग्रेजी को ही उज्जवल भविष्य की कुंजी माना जाने लगा तब तो किसी ने हिंदी के भविष्य के संबध में क्यों नहीं सोचा? तब विरोध क्यों न किया गया?
हिंदी माध्यम स्कूलों के पाठ्य पुस्तकों में विज्ञान,गणित,कला इत्यादि से संबंधित पुस्तकों को औपचारिकता बनाकर क्यों रखा गया? अलग-अलग लेखकों ने इन विषयों पर जो पुस्तकें लिखी उसकी उपलब्धता की संख्या गिनी-चुनी क्यों रखी गयी? जबकि अंग्रेजी माध्यम में इसकी संख्या अनगिनत है। सवाल अनगिनत है जड़ में।
अब जब अंग्रेजी देश के रग-रग में समा चुकी है तो हिंदी पखवाड़े या हिंदी दिवस के अवसर पर इसका विरोध करने का कोई तुक नहीं है। विरोध करके कुछ होना भी नहीं है। सब महीनेभर का प्रदर्शन बनकर रह जाता है मात्र दिवस के लिए।
समय के साथ हुये परिवर्तन को नकार नहीं सकते हैं। इंद्रधनुषी संस्कृति की चुनरी ओढ़े हमारे देश में अलग प्रदेशों में रहने वाले लोगों की लोकसंस्कृति, बोली,व्यवहार,पहनावा ही खूबसूरती है और अब अंग्रेजी को भी अपनाया जा चुका है। हमारे दैनिक जीवन के क्रिया-कलाप हिंदी होते हुये भी अंग्रेजियत से प्रभावित हो चुके है। हिंदी की आत्मा में अंग्रेजी को अनाधिकार प्रवेश मिल चुका है।
ये तो मानते है न कि जबर्दस्ती कुछ भी मनवाया नहीं जा सकता है जबरन नियम या कानून थोपा गया हो तो इसका प्रभाव जल्दी ही निष्क्रिय हो जाता है।
आज जरूरत है हम हिंदी को मन से अपनाये।
बेहतरी इसी में है कि बची हुई हिंदी की धरोहर को
पूरा सम्मान और संरक्षण दिया जाय।
मुझे तो लगता है हिंदी मात्र साहित्य तक ही सिमटकर रह गयी है। हिंदी का मतलब कविता कहानी,कुछ लेख और फिल्मी गीत। मतलब अब हिंदी मनोरंजन तक सीमित होने लगी है।
अरे हाँ सबसे गंभीर समस्या की बात करना ही भूल गये "हिंदी साहित्य में बढ़ता भदेसपन।"
हिंदी फिल्म के संवाद हो, गीत हो या किसी हिंदी राष्ट्रीय समाचार चैनल का खुला बहस मंच सभी जगह धड़ल्ले से अपशब्दों के प्रयोग ने हिंदी भाषा का चेहरा बिगाड़कर रख दिया है।
साहित्य के पुरोधा तथाकथित झंडाबरदार जब किसी व्यक्ति ,घटना या रचना को न्यायाधीश बनकर उसका विश्लेषण करते हैं तो खूब जमकर गालियों के प्रयोग करते है। लोग सहज रुप से अभिव्यक्ति की आज़ादी या सच कहने वाला प्रतिनिधि बताकर किसी के लिए भी कुछ भी अमर्यादित अपशब्द लिखते और बोलते नज़र आते है और बेशर्मी से व्यंग्य का नाम दे देते हैं। व्यंग्य लिखना और मखौल उड़ाने में एक सूतभर का अंतर होता है। पर हम इनका भी विरोध नहीं करते बस हिंदी दिवस का ढोल पीटते है।
एक बात प्रमाणित है हिंदी साहित्य के छोटे-बड़े सभी लेखकों ने बागडोर थामी हुई है हिंदी के भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हुये।
हमारे देश के ग्यारह हिंदी भाषी राज्यों में बोली जाने वाली विविधापूर्ण हिंदी प्रचलित भाषा में मिश्रित करके बोली जाती है। जैसे उत्तरप्रदेश से बिहार आते-आते हिंदी में गवईंपन बढ़ जाता है। हिंदी भाषा की शुद्धता का मानक स्तर तय करने का दारोमदार हिंदी साहित्य पर है। हिंदी पत्रिकाएँ और युवा साहित्यकारों की बढ़ती संख्या एक सकारात्मक संकेत है, पर अगर वो भाषा की शुद्धियों पर ध्यान दें तो और भी सुखद होगा हम उम्मीद कर सकते है कि हिंदी की शिथिल पड़ती धुकधुकाती साँसों में प्रयासों द्वारा अब भी कृत्रिम उपकरणों की मदद से ऑक्सीजन भरकर नवजीवन प्रदान किया जा सकता हैं।
#श्वेता सिन्हा
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में रविवार 15 सितम्बर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआशा ही जीवन है। सुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत खूब श्वेता !उम्मीद पर ही दुनिया टिकी है । ...
ReplyDeleteवाह! बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteहिंदी को राजभाषा घोषित तो किया गया लेकिन यह एक घोषणा भर बनकर रह गई हैं, उसे दयनीय समझकर उससे किनारा कर अंग्रेजी को सबल मानकर उसी के पीछे चलने में हमारे देश के तात्कालिक राजनेताओं ने उचित समझा, क्या कहें मानसिक गुलामी के जो बीज गहरे जो पैठ बनाये होंगे। है हिंदी को भी आरक्षण की तरह १० वर्ष की जगह १५ वर्ष का वनवास मिला था, किन्तु अफ़सोस वह वनवास की अवधि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले पा रहा है, वह अज्ञातवास में चल रही है, इसलिए एक दिन हो-हल्ला मचाकर हम उसे ढूढ़ने का उपक्रम करते रहते हैं।
ReplyDeleteजिसे अपनाया उसे अब ठुकराना ना तो संभव है और नाही उचित है क्युन्कि महत्व तो उसका भी कम नही किंतु जो हमारी अपनी है उसके अस्तित्व और अधिकारों की रक्षा भी हमारा ही कर्तव्य है क्युन्कि वही हमारे अस्तित्व का कारण है।
ReplyDeleteआपके कथन से पूर्णतः सहमत हूँ आदरणीया दीदी जी। आपके दृष्टिकोण ने भाषा के प्रति विचारों को जो उचित दिशा दी देने का सार्थक प्रयास किया है उसके लिए आपका हार्दिक आभार एवं बधाई।
सत्य है हर भाषा स्वयं में सर्वश्रेष्ठ है।
सादर नमन
प्रिय श्वेता , हिंदी को समर्पित ये भावपूर्ण लेख बहुत ज्ञानवर्धक लगा मुझे | यूँ तो अगर सोशल मीडिया पर देखा जाए तो हिंदी खूब फल फूल रही है | हिंदी पत्रकारिता , विज्ञापन , अनुवाद , अध्यापन आदि में आजीविका के अवसर भी मुहैया कराती है हिंदी , पर मुख्य बात यही है कि शुरुआत तो घर से ही हो | हम भले हमारे बच्चे हिंदी के अध्यापक ना बनें पर हिंदी का ज्ञान उन्हें पूरा हो इतना तो कर ही सकते हैं | दूसरे सभी के मन में हिंदी का सम्मान तो हो उसे हेयता से ना देखें | रही बात मानक भाषा सीखने की सो सीखने वाले पर निर्भर करता है वे इसे कैसे लेते हैं | कोई क्या कहता है और क्यों कहता की बजाय हमें क्या करना चाहिए पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए , ऐसा मुझे लगता है कि ब्लॉग बहुत अच्छा माध्यम नकार उभरा है किसी भी भाषा की अभिव्यक्ति के लिए | पर ब्लॉग पर अभिव्यक्ति का स्वर्णकाल मानो अब विदा हो चुका | शायद इसका कारण किसी हद तक फेसबुक और दूसरे मंच भी हैं जिनपर आजकल प्रबुद्ध ब्लॉगर व्यर्थ के वार्तालाप में लिप्त होकर अपना समय और रचनात्मकता दोनों को हानि पहुंचा रहे हैं | अपने ब्लॉग पर स्नेहिल प्रतिक्रियाओं का आभार तक व्यक्त करने का समय नहीं पर वहां बेकार की बहस जारी है | मुझे लगता ये मात्र समय बिताने वालों के लिए अच्छा है पर साहित्य -जगत से जुड़े लोगों के लिए नहीं | नवोदित रचनाकारों को प्रोत्साहन और अपने ब्लॉग की गरिमा कायम रखना ही हमारा पहला कर्तव्य होना चाहिए | ब्लॉग को कोई कीमती समय दे और उसके लिए हमारे पास एक आभार तक ना हो ये उस समय की कीमत को कम आंकना है जो कोई ब्लॉग के लिए देता है इसी क्रम में रचना पर सार्थक विमर्श भी आगे बढ़ता है | बाकि सब की अपनी मर्जी हैं | कोई किसी को कुछ भी करने के लिए बढी नहीं कर सकता | सार्थक लेख के लिए हार्दिक शुभकामनायें और बधाई | सस्नेह --
ReplyDeleteकृपया बढी नहीं बाध्य पढ़ें
ReplyDeleteकुछ लोग हिन्दी सिवस का ढोल पिटते हैं और कुछ लोग सीधे-सीधे बात नहीं कह के "कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना" को चरितार्थ करते हैं।
ReplyDeleteबहस किसी भी विषय पर कहीं भी हो चाहे वह दूरदर्शन हो, ब्लॉग हो या फेसबुक हो ये सब तो माध्यम हैं, कोई ना कोई परिणाम निकलता ही है।
अब ये तो सामने वाले पर निर्भर करता है कि बहस का निहितार्थ उसके मतलब का है या बेमतलब का।
सिवस = दिवस
ReplyDeleteसुबोध जी , मुझे खेद है कि आपने इस टिप्पणी को व्यक्तिगत रूप में लिया | मेरा तात्पर्य आपसे बिलकुल नहीं था और ना ही कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाने की मंशा थी | मुझे आज तक ऐसी कवायद बिलकुल नहीं करनी पडी कि मैं छद्म ढंग से अपनी बात कहूं | मैंने आभार के विषय में ये बात कही थी | जाने अनजाने यदि आपको या किसी ओंर को मेरी बात से ठेस लगी हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ |
ReplyDeleteरेणु जी ! आप क्षमाप्रार्थी जैसा शब्द बोल कर मुझे शर्मिन्दा और स्वयं श्रेष्ठ मत बन जाइए। मुझे भी तो गर्व महसूस करने का मौका मिलनी चाहिए। है ना!?
ReplyDeleteतो हम भी आप से एक बार क्षमाप्रार्थी बोल देते हैं।
एक बात महसूस आप भी करती होगी कि ये लिखित संवाद , चाहे वह किसी भी माध्यम से हो, व्हाट्सएप्प, मैसेंजर, etc-आपकी हमारी बातों का शत्-प्रतिशत सम्प्रेषण नहीं कर पाता है। सामने वाले का शब्द तो पहुंच जाता है, पर Tone स्पष्ट नहीं हो पाता है। हाँ, कुछ हद तक smiley इसकी कमी को पूरी कर पाती है, पर शत्-प्रतिशत नहीं।
कई दफ़ा इस कारण से भी आपसी गलफहमियां पनपती हैं।
सुबोध जी, मुझे श्रेष्ठ बनने की कोई लालसा नहीं। क्षमा संभावित गलतफहमी से बचने के लिए थी। श्रेष्ठता दूसरे तय करते हैं, इंसान खुद नहीं। आपकी क्षमा को सम्मान है। आपसे विमर्श सार्थक रहा। आपने बडी बेबाकी से अपनी बात कही। ऐसी ही किसी अगली सार्थक वैचारिक भिड़ंत तक 🙏🙏☺☺
Deleteजब तक नौकरियों को प्राप्त करने में अंग्रेज़ी माध्यम होगी तब तक हिंदी का भला नहीं होने वाला ।
ReplyDeleteबढ़िया आलेख । कुछ बचा नहीं कहने के लिए ।