Thursday, 22 November 2018

केक


"आज केक आयेगा"

"आज केक आयेगा।"

केक आयेगा न पापा? मेरे चेहरे पर मासूम आँखें टिकाकर तनु ने पूछा।

मैंने मुस्कुराकर हामी भरी तो उसकी आँखों में अनगिनत दीप जल उठे।

सात वर्षीय बिटिया तनु खुशी से नाच रही थी पूरे घर में, आज उसका जन्मदिन है। 
आज के दिन के लिए खास उसने तीन महीने पहले से ही मुझसे कह रखा था उसे भी अपने जन्मदिन पर नयी फ्रॉक पहनकर केक काटना है,रंगीन मोमबत्तियाँ फूँक मारकर बुझानी है फिर पापा और मम्मा बर्थडे सॉग गायेंगे। फिर वह टेस्टी वाला केक खायेगी। सबसे पहले पापा को फिर मम्मा को खिलायेगी केक पर क्रीम का जो फूल होता है न उसको और कोई नहीं खायेगा बस वही खायेंगी,उसकी मासूम बातें मुस्कुराने को मजबूर कर देती है।

इस दो कमरे के किराये के मकान में मैं,मेरी पत्नी और मेरी बिटिया अभावों में भी खुश रहने का हरसंभव प्रयास करते हुये जी रहे हैं।
मैं एक मामूली चपरासी था एक छोटे से ऑफिस में।
मामूली तनख्वाह में किसी तरह खींच-तान कर गुजर हो जाती है। पर केक जैसी मँहगी चीजें खरीदने के लिए सोचना पड़ता है। पिछले महीने पत्नी को डेंगु हो गया था तो बचत के रुपये उसमें खर्च हो गये थे।
इस महीने बड़ी मुश्किल से कतर-ब्योंत करके हमने कुछ बचत की है जिससे कोई बड़ी दावत तो नहीं पर हाँ उसकी बढ़िया वाला केक की फरमाइश जरुर पूरी हो सकती थी। सुबह से ही  तनु उसकी माँ को हर दस मिनट में याद दिला रही थी कि किस टेबल पर केक रखना है, सबसे सुंदर नारंगी फूलों वाला टेबल क्लाथ बिछाना है, मैं मोमबत्तियाँ कहीं भूल न जाऊँ इसलिए पहले ही खरीदा जा चुका है,केक काटने के लिए स्टील का नया चाकू उस बाँधने के लिए लाल रिबन और भी न जाने क्या-क्या अब बस केक आना बाकी है जो शाम को लौटते समय मैं लेता आऊँगा। मैं शाम सात बजे केक लेकर आने की बात करके ऑफिस आ गया।
निर्धारित समय पर ऑफिस से निकला, नवंबर महीने का पहला सप्ताह था पाँच बजे से ही अंधेरा घिरने लगता है अभी पौने छः बजे रहे थे। 
सोचने लगा चलो ठीक है समय पर पहुँच जाऊँगा।
मन ही मन केक का हिसाब-किताब करता हुआ जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाता, अपने शहर के नामी बेकरी दुकान पर आकर ठिठक गया। 
महँगे कपड़े पहने संभ्रात घरों के खिलखिलाते बच्चों और आनंदित होते अभिभावकों को देखकर कुछ सकुचा-सा गया अनायास मेरे हाथ यूनीफॉर्म को सहलाने लगे।
फिर जेब में पड़े रुपयों के आत्मविश्वास से भरकर मन ही मन मुस्कुराते हुये मैं शीशे का पारदर्शी दरवाज़ा खोलकर अंदर दाखिल हुआ।
तरह-तरह के लुभावने,मोहक,खुशबूदार केक ,पेस्ट्री और भी न जाने क्या-क्या शीशे के शो केस में करीने से सजे थे, सब पर मूल्य का टैग अंकित था।
मूल्य देखकर ए.सी दुकान में पसीने से भींग गया मैं,

सोचने लगा , बाप रे!मेरे पूरे महीने की तनख्वाह इतनी नहीं जितने का केक है यहाँ। 

तभी कोने में रखे छोटे-से गुलाबी रंग के केक पर अंकित मूल्य देखकर जान में जान आई। 
उसे पैक करवाकर दुकान के बाहर आ गया।  जेब हल्का होने की उदासी छाने लगी पर बिटिया का मुस्कुराता चेहरा याद आते ही सारे ख्याल झटक कर उत्साह में लंबे-लंबे क़दम बढ़ाने लगा।  बाज़ार के मुख्य सड़क से बायीं ओर जाने वाली गली के अंतिम छोर पर चाट के ठेले पर खूब भीड़ लगी थी।  मेरी श्रीमती जी को भी चाट बहुत पसंद है अच्छा अगले महीने उसके लिये ले जाकर खुश कर दूँगा,बेचारी कुछ फरमाइश कहती नहीं कभी।
सोचते-सोचते गली में मुड़ा ही था कि अनायास क़दम ठिठक गये। गली के मुहाने पर लगे लैपपोस्ट से आती हुई हल्की पीली रोशनी का मद्धिम प्रकाश पसरा हुआ था। वहीं कोने में पड़े जूठे पत्तों की ढेर में एक छोटा-सा लड़का जाने क्या ढूँढ रहा था। मैं फीकी रोशनी में आँख गड़ाकर ध्यान से देखने लगा। छः-सात साल उम्र होगी उसकी,फटकर झूलती शर्ट और अजीब तरीके से बाँधकर पहने गये निकर को बार-बार ऊपर खींचता हुआ वह जूठे दोनों से तन्मयता से जूठन चुनकर एक प्लास्टिक की थैली में डालता जा रहा था और बीच-बीच में कुछ मुँह में डाल भी रहा था। 
जड़वत हो गया मैं कुछ पल के लिए। सब भूल गया बिटिया इंतजार कर रही होगी यह भी याद न रहा।
बगल से गुज़र रही बाईक की आवाज़ से तंद्रा भंग हुई मेरी और फिर मन कठोर कर अनदेखा करके आगे बढ़ गया। पर फिर रहा न गया वापस लौट आया और सीधे जाकर उसके पीठ पर खड़ा होकर
उसे आवाज़ दी।

"ऐ बाबू सुनो ज़रा"
वो लड़का अचकचा गया सहमा-सा मेरी तरफ पलटा। उसके चेहरे के भाव अंधेरे में खास समझ नहीं आ रहे थे पर उसकी पनीली आँखों में भरी दीनता से मन भर आया। सूखी पपड़ीदार होंठ पर जीभ फेरता हुआ प्रश्नवाचक दृष्टि से मुझे देखने लगा।
सुनो, यह जूठा मत खाओ तुम। बीमार पड़ जाओगे,
मैंने कहा।
उसने भीगी आवाज़ में अटकते हुये कहा,
"बहुत भूख लगी है।"

मुझे तत्काल कुछ न सूझा। उससे कुछ पूछा भी न गया।
धीरे से केक का पैकेट उसकी ओर बढ़ाते हुये कहा, "तुम इसे खा लो।"

खुशी और असमंजस के मिले-जुले भाव उसकी आँखों में लहराने लगे। वह प्लास्टिक की जूठन वाली थैली किनारे फेंककर केक के पैकेट खोलने में व्यस्त हो गया और मैं चुपचाप पलटकर वापस घर के रास्ते पर चल पड़ा सोचता हुआ कि बिटिया को क्या कहूँगा।

-श्वेता सिन्हा

11 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 24 नवम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत ही भावपूर्ण
    मार्मिकता का सजीव चित्रण

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  3. मानवीय मूल्यों को कुरेदती अद्भुत ह्रदयस्पर्शी रचना!!!! बहुत बहुत बधाई और आभार!!!!

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  4. ये हुई न इंसानों वाली की बात !!!!! ये केक भी सार्थक हुआ और जन्म दिन भी !!
    आखिर कोई तो हो जो इंसानियत की लाज्र रखने वाला हो | नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा बढाती सुंदर भाव पूर्ण लघु कथा -- प्रिय श्वेता हार्दिक बधाई |

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  5. बहुत ही मार्मिक कहानी

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  6. बेहद मर्मस्पर्शी कहानी

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  7. इंसान के लिए ऐसी परिस्थिति सचमुच धर्मसंकट वाली होती है,इसमें मानवता और नैतिक मूल्यों की जीत होना सुखद है।

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  8. केक आयेगा न पापा? मेरे चेहरे पर मासूम आँखें टिकाकर तनु ने पूछा।

    मैंने मुस्कुराकर हामी भरी तो उसकी आँखों में अनगिनत दीप जल उठे।


    उसने भीगी आवाज़ में अटकते हुये कहा,
    "बहुत भूख लगी है।"

    अद्भुत लेखन। भावों को सजीवता से चित्रित करती है आपकी कलम। दृश्य ह्रदय पर गहन प्रभाव छोड़ते हैं। एक बेहद संवेदनशील विषय पर आपने ह्रदयस्पर्शी शैली में प्रेरणादायक कहानी लिखी है। बहुत बहुत बधाइयाँ श्वेता जी। साधुवाद

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  9. जी श्वेता जी ,
    प्रणाम।
    मन भर आया आपकी यह लघुकथा पढ़ कर । दरअसल, यह जो त्याग का भाव है न , वह निम्न- मध्यवर्गीय लोगों के पास सम्पन्न वर्ग की अपेक्षा कहीं अधिक होता है। वे जानते हैं कि गरीबी और जीवन संघर्ष क्या है।
    आपकी कहानी के पात्र ने जिस तरह से अपने परिवार की खुशियों से कहीं अधिक महत्व उस भूखे बालक को दिया, काश ! यही मानवीय गुण हम सभी के हृदय में समा जाए, तो यह दुनिया कितनी खूबसूरत हो जाए।
    आभार आपका।




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  10. बहुत अच्छा लगा दीआपकी कहानी

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  11. वाह!!श्वेता ,दिल को अंदर तक छू गई आपकी ये लघुकथा ।

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