Monday, 12 November 2018

छठः संस्मरण


भोर चार बजे नींद खुली तो दूर किसी लाउडस्पीकर पर बजते पवित्र पावन सुमधुर शारदा सिन्हा के  गीतों ने के आकर्षक में बंधी हुई बालकनी का दरवाज़ा खोलकर खड़ी हो गयी ताकि और अच्छे से गाने के बोल सुन सकूँ।  ठंड बढ़ गयी है, भोर में वैसे भी थोड़ी ज्यादा ही सिहरन होती है गीत समाप्त होते ही एहसास हुआ। पर फिर भी मन नहीं हुआ भीतर आने का वही कोने में चेयर खींचकर बैठ गयी। दूर टिमटिमाती रंगीन बल्ब की झालरों और छठ के गीतों का मिश्रण मुझे अतीत में खींच कर ले गये।

"अरे बचुआ सब तोहनी के सौ बार बोललियो समझे न आवहे कुछो न बुझाहे दूर रह स एई जा से।"
बड़की मामी भोर से बड़बड़ाना शुरु कर देती चित्रगुप्त पूजा के दूसरे दिन सुबह गेहूँ सुखाना होता था।
पूरा घर बच्चों से भरा रहता था मामी के साथ-साथ हम सब जगकर तैयार धमा-चौकड़ी के लिए।
हम सब की खीं-खीं से पूरा घर जग जाता।
बड़े से मिट्टी के आँगन को लीपने के लिए गोबर लाने की जिम्मेदारी बच्चों की होती थी, आधे घंटे मे ही गोहाल से लाकर गोबर का ढेर लगा देते। बड़ी दीदियाँ आँगन लीपती माँ और मौसी नदी से कलशा,गगरी और बटलोही में भरकर पानी लाती।
खटिया धुलाता और बड़का मामा की धुली धोती बिछायी जाती । बाँस की टोकरी में गेहूँ धोकर खटिया पर सुखाया जाता । मधुर गीतों से पूरा घर-मुहल्ला गूँजता रहता।  हम बच्चे नदी के घाट पर अपना जगह छेकने जाते थे और ज्यादा जगह के लिए झगड़ा भी खूब करते थे नदी के पत्थरों से घेरे गये उस जगह के बीच चादर ,दरी बिछाकर ऐसा लगता जैसे हम मालिक हो गये है वहाँ के।
नहाय-खाय के दिन मामी को सोने कहाँ देते थे हमलोग, सब सर पर खड़े हो जाते थे कौआ बोलने के पहले ही मामी उठिये न आप भूल गयी आज लौकी भात बनाना है। हा हा हा..
मामी के नहाने के पहले ही पूरी बानर सेना नहा- धोकर तैयार हो जाती थी।
पूरी पवित्रता से अरवा चावल चना का दाल और लौकी की सब्जी बनाती खरल में कूट के डाले गये मसाले,सेंधा नमक और घी के छौंक से घर सुवासित हो जाता था। प्रसाद बनाने के बाद मामी भोग लगाती फिर हम बच्चों को आँगन में पगंत बैठती और जमकर सब खाते। वैसा स्वाद शायद ही किसी पकवान का रहा होगा।
खरना के दिन तो हमारा भाव बढ़ा रहा मामा दूध लाकर रख देते थे  आम की लकड़ियों का ढेर चुटकियों में हमलोग काट कूट के बराबर कर देते।
माँ ,मामी,मौसी मिसराइन चाची सब मिलकर जाता(हाथ की चक्की)में गेंहूँ पीसती और हम सब दौड़-दौड़कर आस-पास के मुहल्लों में निमंत्रण दे आते आज शाम को प्रसाद खाने आइयेगा।
गुड़ की खीर पूरी और चिनिया केला का भोग लगाया जाता।
शाम को मामी के पूजा करने के बाद कौन सबसे पहले पियर सेंनुर लगवायेगा इसकी होड़ रहती।
माँ को मामी और मुहल्ले की तमाम औरतों को नाक पर से सेंनुर लगाये देखकर एक बार तो हम भी रठान मार दिये हमको भी लगाना है तब माँ समझायी कि नाक पर से सेंनुर ब्याहाता औरतें लगवाती हैं।
साँझ के अरग वाले दिन मुँह अंधेरे  ही पूजा घर धो-पोंछकर तैयार हो जाता। मामा भैय्या सब लोग हाट से लाये सूप, दौरा और फल के बड़े से ढेर को धोते। ऐसे फल जो सिर्फ छठ में ही देखने को मिलते हम बच्चों के लिए मनोरंजन का साधन होता सब कौतूहल से पूछते ये क्या है वो क्या है.?और मामी की मीठी झिड़की चलती रहती "दूर रह तू सब जा घाट देख आओ"
कुछ मत छू रे भाग यहाँ से हे,सूरज भगवान इनका सब के माफ करी,कुछो छू छा न कर तोहनी सन।"
फिर शुरु होता मुख्य प्रसाद बनाने का सिलसिला
बड़े से परात में आटा गुड़ और घी का मोयन सौंफ,नारियल की गरी आदि डालकर मिश्रण बनाया जात फिर नयी ईंट जोड़कर आम की लकड़ी सुलगाकर बड़ी सी पीतल की कढ़ाई में खूब सारा घी डालकर धीमी आँच पर ठेकुआ बनाया जाता।
पूरे घर में फैली भीनी खुशबू इसे पगलाये हम सब सौ चक्कर लगा आते।
फिर शुरु होता था सजने-सँवरने का सिलसिला,
चटख रंग के कपड़े पहनते, 'ध्यान रहे कोई काला मत पहनना तीज त्योहार पर ऐसा अशुभ रंग कोई पहनता है मासी कहती' इत्र,तेल-फुलेल लगाकर काजल बिंदी करके सब खुद पर मुग्ध होते रहते।
सब भाइयों के कमर पर पॉकेट चुटपुटिया पटाखों चॉकलेट बम,सुतली बम,काली बम,त्रिपल साउंड आदि से भरे रहते। दीपावली का छिपाया स्टॉक निकल जाता। सब लोग चप्पल-जूते घर पर उतार कर रख देते भैय्या मामा सबके माथे दौरा सूप पीले कपड़े में बाँधकर रखा जाता। और छठ गीत में मंगल कामना गाते सूरूज देव को मनाते निहोरा करते सब बड़े उत्साह से घाट पर जाते।
रंग-बिरंगे परिधानों मेंं सजे लोग एक-दूसरे के सहयोग करने को तत्पर प्रेम और सौहार्द का ऐसा मंज़र कहाँ देखने मिला फिर।
पता ही न चलता किसके घर छठ हो रहा और किसके घर नहीं। सब एक रंग में रंगे दिखते भक्ति के रंग में।
साँझ अरग के बाद घाट से वापसी के समय सब बच्चे गोलगप्पे और चाट के ठेले पर मौज मनाते।
मामा-मौसा और भैय्या की तरफ से जमकर पार्टी होती थी। उसके बाद रात का खाना कोई नहीं खाता था।
रातभर मामा मौसी माँ और आस-पास की कुछ औरतें मिलकर प्रसाद बनाती हम सब बच्चे उत्साह में रातभर जगते और घाट जाने के समय उनींदे हो जाते आखिर बच्चे ही थे।
जैसे-तैसे उठाकर मनाकर लादकर सबको घाट लाया जाता। फिर सूरूज देव के जगने तक खूब गीत गाये जाते अंधकार में डूबी नदी के किनारोंं पर जब पत्तों पर दीये रखकर जलाये जाते ऐसा लगता आसमां के नन्हें सितारे जमीं पर उतर आये हैं। पौ पटते के साथ ही एक नवीन ऊर्जा का संचरण हो जाता, तबतक बच्चे भी जग जाते। आसमां पर आँखें टिकाये भोर की ठंडी हवा में सिहरते कुनमुनाते सूर्य की लाली छाते ही सब चिल्ला पड़ते।
अरग के बाद प्रसाद के लिए पगलाये रहते थे सब।
मामी एक-एक बच्चे को याद से ठेकुआ देती और टीका लगाती।
फिर बच्चे निकल पड़ते चुपचाप आसपास सबसे प्रसाद माँगने कोई बड़ा कितना भी कुछ कहे हम कहाँ सुनते थे पूरा घाट घूम-घूमकर ठेकुआ केला का ढेर जमा करते थे।
उस दिन खाना कौन खाता आधा दिन इधर उधर चरते ही बीत जाता। फिर थक हार सब मुँह खोले जिसको जहाँ जगह मिला घुस के सो जाते।
बचपन का वो दौर वो छठ फिर कभी न आया।

सूर्य की लाली आसमान से उतर कर बालकनी में फैल गयी थी। उदास होठों पर आई यादों की मीठी मुस्कान को सहेजकर दैनिक कार्य में जुट गयी हूँ पर दिमाग मन उन गलियों से निकल ही पा रहा।
शायद बदलते दौर में ऐसी बेशकीमती यादें ही हमारी बेशकीमती पूँजी हैं।
©श्वेता सिन्हा


7 comments:

  1. प्रिय श्वेता -- अतीत के आंगन में विचरते मन की ये सुहानी स्मृतियां मन को भिगोती हैं साथ में हमारे संस्कारों को नये संबल प्रदान करती अनंत सुख देती हैं |बहुत ही प्यारा संस्मरण लिखा आपने | आप एक बात शायद लिखना भूल गयी - जितना भाव अपने घर में मिलता है उससे सौ गुना बच्चों को ननिहाल में मिलता है | जीजान से खातिर में जुटे मामा - मामी की महिमा का बखान कौन लेखनी कर पाने में समर्थ हैं ? यादों के इस सजे झरोखे से हमने भी लोक जीवन का एक सुंदर दृश्य निहार लिया जिसके लिए आपको हार्दिक आभार देती हूँ साथ में छठ पर्व की ढेरों शुभकामनायें और बधाई | सचमुच बिना लाग - लपेट के आत्ममुग्धता के साथ लिखा आपने | मेरा हार्दिक स्नेह आपके लिए |

    ReplyDelete
  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 14 नवम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  3. वाह !!! आपके साथी बन आपके साथ साथ हम भी घूम आए उन गली - आंगन और नदिया के घाट पर । बेशकीमती यादें ।

    ReplyDelete
  4. कहाँ कहाँ से टहला लाईं आप
    सस्नेहाशीष संग शुक्रिया

    ReplyDelete
  5. वाह मन मोह गया और दौड़ कर पहुंच गया वहीं नोनिहाल के मस्ती भरे ग्रीष्म अवकाश में ननिहाल, वे भी क्या दिन थे खैर..
    श्वेता इतना प्यारा संस्मरण है आपका कि उसमें छठ पर्व की पुरी जानकारी रीति रीवाज धार्मिक महत्ता और सबसे सुन्दर पक्ष अपनी बोल चाल की प्रादेशिक भाषा का सुंदर समन्वय
    बहुत ही सुंदर संस्मरण जो चलचित्र सा आंखों में लहरा गया, और हम जो छठ पर्व पर विशेष कुछ नही जानते उन्हें जानकारी करवाता आलेख।
    सस्नेह।

    ReplyDelete
  6. बहुत हघ लाजवाब संस्मरण... बचपन और ननिहाल की स्मृति के साथ छठ पर्व की जानकारी...गाँव और हमारी संस्कृति, संस्कार की खूबसूरत यादें...... शायद सिर्फ हमही ऐसे सौभाग्यशाली है आगे की पीढियों के लिए तो ये सब सुनी सुनाई बातें होंगी....
    बहुत ही लाजवाब संस्मरण।

    ReplyDelete