Saturday, 20 March 2021

चिड़़िया

चीं-चीं,चूँ-चूँ करती नन्हीं गौरेया को देखकर

 मेरी बिटुआ की लिखी पहली कविता जो

 उसने ५वीं कक्षा(२०१७) में लिखा था

 और साथ में उसके द्वारा  बनाई गयी

 पहली कैनवास पेंटिंग

जो मेरे लिए विशेष है-

 
चूँ-चूँ करती 
गाती चिड़िया,
गाते गाते 
सबका मन 
मोह जाती चिड़िया,
उसकी 
मधुर वाणी से 
सब खुश हो जाते,
चुगते-चुगते 
खा जाती है दाना,
तिनका-तिनका 
जोड़कर 
बनाती अपना घोंसला,
फिर,
आता है एक चूजा,
जिसे नहीं आता है 
उड़ना,
फिर धीरे धीरे 
वह सीखता है 
उड़ना,
अपनी माँ से।

#मनस्वी प्राजंल
(2017)


Thursday, 4 February 2021

अंतर्रात्मा

 


ये अंतर्रात्मा क्या होती है माँ?

बिटिया ने एक कहानी पढ़ते-पढते पूछा।

 'मन' मैंने कहा।

 'मन' का मतलब क्या?उसने पूछा!

 "मन जो दिमाग से अलग होता है।

बुद्धि-विवेक,छल-प्रपंच से अलग जिसकी ध्वनि सुनी जा सकती है,जहाँ से सदा सच्ची और अच्छी आवाज़ आती है।

मैंने कहा।


सबको सुनाई पड़ती है "अंतर्रात्मा की आवाज़"?उसने पूछा

"हाँ लगभग हर मनुष्य को किसी भी काम करने के पहले,जीवन की हर दुविधा में सही-गलत के निर्णय में सहायक होती है।"मैंने कहा।

"उसने लगभग उदास होते हुये कहा,आजकल लगता है अंतरात्मा ने बात करना बंद कर दिया है मनुष्यों से!"


"नहीं बेटा मनुष्य अंतर्रात्मा की आवाज़ सुनना नहीं चाहते हैं क्योंकि अंतरात्मा के बताये राह पर चलना आसान नहीं होता है।"


#श्वेता

Sunday, 24 January 2021

माँ का डर



ब वो घर के बाहर निकलती है मुहल्ले के बच्चों के बीच खेलने के लिए अनगिनत बार झाँक-झाँककर देखती रहती हूँ। पूरी देह ढक सके ऐसे कपड़े पहनने पर जोर देती हूँ वो चिड़चिड़ाने लगती है,

" मम्मा इतनी गर्मी है फुलस्लीव्स नहीं पहनेगे हम"

पर पुचकार कर दुलारकर किसी तरह मना लेती हूँ।

जब भी कोई बड़ा लड़का,मुहल्ले के भैय्या, अंकल या दादाजी उसके गालों को स्नेह से दुलराते हैं हँसकर उसे छेड़ते हैं तो मन में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगता है। अपना सारा अनुभव उनकी हरकत उनकी मंशा को समझने में लगा देती हूँ खोद-खोदकर बिटिया से पूछती हूँ उन्होंने क्या कहा?

 वैसे तो वो ख़ुद ही दूसरों से कुछ नहीं लेती पर किसी ने कुछ दिया तो घर लाकर खाना ,सबसे पहले मुझे दिखाना ऐसा सिखाया है उसे।

मुहल्ले के आस-पास के दुकान पर कोई सामान लाने के लिए भी जाने नहीं देती। चाहे बिना नमक के खाना बन जाये या विषय की कॉपी के बगैर वो स्कूल चली जाय।

"मम्मा रोहण,मोहित,शानू सब तो जाते हैं हमको भी जाना है बड़े मैदान में साईकिल चलाने पर मैं कठोर बनी उसकी आँसुओं की परवाह नहीं करती,बस यही कहती हूँ नहीं जाना मतलब नहीं जाना..वहाँ तुम मेरी नज़रों से दूर रहोगी और हम टेंशन में।"

ऐसी अनगिनत बातें हैं पर बेटी की अस्मिता की चिंता ने एक माँ के मन की सोच को संकुचित कर दिया है। मेरी तरह और ही माँ हैं जो अपनी नन्ही परी की उडान बाधित नहीं करना चाहती पर मजबूर है। क्या करुँ मैं अपनी सोच को एक दायरे में सीमित कर लिया है मैंने। आये दिन समाज में मासूम बेटियों के साथ होने वाली अमानवीय घटनाओं,जघन्य कृत्यों,रोंगटे खड़े करने वाले सामाचार और तस्वीरों ने बेटी की सुरक्षा के प्रति आशंकित कर दिया है।

"आखिर एक बेटी की माँ हूँ मैं।"

मुझे कोई तो समझाये दो और पाँच साल की मासूम बच्चियाँ कैसे उकसाती होगी वासना ? ऐसे दुश्कृत्यों को करने वाले मानसिक रोगी के लिए समाज में कोई स्थान न हो ये तय करना समाज का काम है क्योंकि सड़े अंग को काटकर हटाने से ही शरीर इन्फेक्शन से मुक्त हो सकेगा। कितने कठोर मन के होते हैं न वहशी जिनका मन मासूम चीखों से नहीं पिघला होगा।इन्सानियत,मानवता सब बकवास लगने लगा है।बात तो हिंदू या मुसलमान की भी नहीं है क्योंकि इंसान के मन के विचार किसी भी धर्म और जाति से ऊपर है। मानसिक कलुषिता जाति धर्म का टैग लगाने से नहीं कम हो सकती है।बात है हमारे समाज के मूल्यों के पतन की। किस दिशा में जा रहे हैं हम????

 #श्वेता


Friday, 31 July 2020

प्रेमचंद... एक पत्र



मेरे प्रिय लेखक प्रेमचंद जी,

यूँ तो आपसे मेरा प्रथम परिचय आपकी लिखी कहानी 
'बड़े घर की बेटी' से हुआ। हाँ हाँ जानती हूँ आप मुझे नहीं जानते हैं परंतु मैं आपको आपकी कृतियों के माध्यम से बहुत 
अच्छे से जानती हूँ और आज तक आपके विस्तृत विचारों के नभ की अनगिनत परतों को पढ़कर समझने का प्रयास करती रहती हूँ। खैर अपनी कहानी फिर किसी दिन कहूँगी आपसे आज आपको पत्र लिखने का उद्देश्य यह है कि आज आपका 140 वां जन्मदिन है। 
पता है हर छोटा बड़ा साहित्यिक मंच आपको दिल से 
याद कर रहा है पूरी श्रद्धा से भावांजलि अर्पित कर रहा है। 
आज के दौर में भी प्रासंगिक 
आपकी लिखी कहानियों के पात्रों के भावों से भींजे 
पाठक रह-रहकर वही पन्ने पलटते हैं जिसमें आपने 
आम आदमी को नायक गढ़ा था। आज के साहित्यकारों का विशाल समूह जब अपने दस्तावेजों को ऐतिहासिक फाइलों में जोड़ने के हर संभव अथक 
मेहनत कर रहा है तब आपकी क़लम बहुत याद रही है।
और हाँ आज आपसे आपकी एक शिकायत भी करनी है मुझे।

जीवनभर अभाव, बीमारी और अन्य मानसिक,शारीरिक 
और आर्थिक यंत्रणाएँ सहकर विचारों के अखंड तप से 
जो सच्चे मोती आपने प्राप्त किया उसे धरोहर के रूप में आने वाली पीढ़ियों को सौंप गये किंतु आपके जाने के बाद वो क़लम जिससे आपने अनमोल ख़ज़ाना संचित किया है वो जाने आपने कहाँ रख दी किसी को बताया भी नहीं उसका पता तभी तो किसी को भी नहीं मिली आजतक। किसी को तो दे जाना चाहिए था न!
क्या कोई योग्य उत्तराधिकारी न मिला आपको.. 
जिसे अपनी क़लम आप सौंप जाते?
या फिर आपकी संघर्षशील क़लम के पैनापन से लहुलूहान होने का भय रहा या  फिर क़लम का भार वहन करने में कोई हथेली सक्षम न थी?
जिस तरह आपकी कृतियों को संग्रहित करने का प्रयास करते रहे आपके प्रशंसक और अनुयायी उस तरह आपकी क़लम को जाने क्यों नहीं ढूँढकर सहेज पाये।
आपके जाने के बाद उस चमत्कारी क़लम की नकल की अनेक प्रतियाँ बनी किंतु आपकी क़लम की स्याही से निकली क्रांति,ओज और प्रेरणा की तरह फिर कभी न मिल पायीं। जाने कहाँ ग़ुम हो गयी क़लम आपकी।
चलिए अब क़लम न सही आपकी बेशकीमती कृतियाँ तो हैं ही जो किसी भी लेखक की सच्ची मार्गदर्शक बन सकती है।
आपसे अनुरोध है कि आप अपने अनुयायियों और  
प्रशंसकों तक यह संदेश पहुँचा दीजिये न कृपया
ताकि हो सके तो आपका गुणगान करने के साथ -साथ
आपके लिखे संदेश का क्षणांश आत्मसात भी करें
और समाज के साधारण वर्ग की आवाज़ बनकर लेखक होने का धर्म सार्थक कर जायें।
आज बस इतना ही बाकी बातें फिर कभी लिखूँगी।

आपकी एक प्रशंसक



Saturday, 14 September 2019

हिंदी


किसी त्योहार ,पूजा के अवसर पर पंडालों से लेकर गली मुहल्लों तक , लगभग एक-सा उबाऊ और नीरस कानफोड़ू लाउडस्पीकर पर बजते गानों की तरह "हिंदी दिवस"के शोर से दिल-दिमाग लगभग शून्य हो गया है। 

हिंदी दिवस !हिंदी दिवस! हिंदी दिवस!
यह जाप करने से हिंदी का उद्धार अगर संभव होता तो फिर क्या कहना था।

सदियों से आतातायियों की संस्कृति को पोषित और आत्मसात करते हुये, जबरन थोपी गयी उनकी सभ्यता को हमने समय के साथ अपनी संस्कृति की आत्मा में मिला लिया सालों जीते रहे वैसे ही अब परिवर्तन की माला फेरने से कुछ कैसे बदल सकता है??

पेड़ के पत्तों पर कीटनाशक का छिड़काव करने से 
समस्या का समाधान कैसे संभव जब जड़ ही संक्रमित हो।

आज़ादी के पहले अंग्रेजों का शासनकाल रहा,उनके जाने के बाद देश के भविष्य निर्माताओं के द्वारा हिंदी राजभाषा बनाकर संविधान में लागू कर दिया गया और जिम्मेदारी समाप्त हो गयी। पर क्या शिक्षा व्यवस्था में हिंदी को मजबूत करने का कोई प्रयास किया गया? शिक्षित सुसंस्कृत और कुलीन व्यक्ति की पहचान ही अंग्रेजी बनने लगी।  हमारी शिक्षा-व्यवस्था में अंग्रेजी को जितनी आत्मीयता मिली हिंदी उतनी ही पिछड़ती गयी। अंग्रेजी माध्यम के 
स्कूलों की जड़ों को और गहरा करके, संरक्षित और पोषित किया गया। कुकुरमुत्तों की तरह अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने लगे और अंग्रेजी को ही उज्जवल भविष्य की कुंजी माना जाने लगा तब तो किसी ने हिंदी के भविष्य के संबध में क्यों नहीं सोचा? तब विरोध क्यों न किया गया?

हिंदी माध्यम स्कूलों के पाठ्य पुस्तकों में विज्ञान,गणित,कला इत्यादि से संबंधित पुस्तकों को औपचारिकता बनाकर क्यों रखा गया? अलग-अलग लेखकों ने इन विषयों पर जो पुस्तकें लिखी उसकी उपलब्धता की संख्या गिनी-चुनी क्यों रखी गयी? जबकि अंग्रेजी माध्यम में इसकी संख्या अनगिनत है। सवाल अनगिनत है जड़ में।

अब जब अंग्रेजी देश के रग-रग में समा चुकी है तो हिंदी पखवाड़े या हिंदी दिवस के अवसर पर इसका विरोध करने का कोई तुक नहीं है। विरोध करके कुछ होना भी नहीं है। सब महीनेभर का प्रदर्शन बनकर रह जाता है मात्र दिवस के लिए।

समय के साथ हुये परिवर्तन को नकार नहीं सकते हैं। इंद्रधनुषी संस्कृति की चुनरी ओढ़े हमारे देश में अलग प्रदेशों में रहने वाले लोगों की लोकसंस्कृति, बोली,व्यवहार,पहनावा ही खूबसूरती है और अब अंग्रेजी को भी अपनाया जा चुका है। हमारे दैनिक जीवन के क्रिया-कलाप हिंदी होते हुये भी अंग्रेजियत से प्रभावित हो चुके है। हिंदी की आत्मा में अंग्रेजी को अनाधिकार प्रवेश मिल चुका है।
ये तो मानते है न कि जबर्दस्ती कुछ भी मनवाया नहीं जा सकता है जबरन नियम या कानून थोपा गया हो तो इसका प्रभाव जल्दी ही निष्क्रिय हो जाता है। 
आज जरूरत है हम हिंदी को मन से अपनाये।
बेहतरी इसी में है कि बची हुई हिंदी की धरोहर को
 पूरा सम्मान और संरक्षण दिया जाय।

मुझे तो लगता है हिंदी मात्र साहित्य तक ही सिमटकर रह गयी है। हिंदी का मतलब कविता कहानी,कुछ लेख और फिल्मी गीत। मतलब अब हिंदी मनोरंजन तक सीमित होने लगी है। 

अरे हाँ सबसे गंभीर समस्या की बात करना ही भूल गये "हिंदी साहित्य में बढ़ता भदेसपन।"
हिंदी फिल्म के संवाद हो, गीत हो या किसी हिंदी राष्ट्रीय समाचार चैनल का खुला बहस मंच सभी जगह धड़ल्ले से अपशब्दों के प्रयोग ने हिंदी भाषा का चेहरा बिगाड़कर रख दिया है।
साहित्य के पुरोधा तथाकथित झंडाबरदार जब किसी व्यक्ति ,घटना या रचना को न्यायाधीश बनकर उसका विश्लेषण करते हैं तो खूब जमकर गालियों के प्रयोग करते है। लोग सहज रुप से अभिव्यक्ति की आज़ादी या सच कहने वाला  प्रतिनिधि बताकर किसी के लिए भी कुछ भी अमर्यादित अपशब्द लिखते और बोलते नज़र आते है और बेशर्मी से व्यंग्य का नाम दे देते हैं। व्यंग्य लिखना और मखौल उड़ाने में एक सूतभर का अंतर होता है। पर हम इनका भी विरोध नहीं करते बस हिंदी दिवस का ढोल पीटते है। 

एक बात प्रमाणित है हिंदी साहित्य के छोटे-बड़े सभी लेखकों ने बागडोर थामी हुई है हिंदी के भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हुये।
हमारे देश के ग्यारह हिंदी भाषी राज्यों में बोली जाने वाली विविधापूर्ण हिंदी प्रचलित भाषा में मिश्रित करके बोली जाती है। जैसे उत्तरप्रदेश से बिहार आते-आते हिंदी में गवईंपन बढ़ जाता है।  हिंदी भाषा की शुद्धता का मानक स्तर तय करने का दारोमदार हिंदी साहित्य पर है। हिंदी पत्रिकाएँ और युवा साहित्यकारों की बढ़ती संख्या एक सकारात्मक संकेत है, पर अगर वो भाषा की शुद्धियों पर ध्यान दें तो और भी सुखद होगा हम उम्मीद कर सकते है कि हिंदी की शिथिल पड़ती धुकधुकाती साँसों में प्रयासों द्वारा अब भी कृत्रिम उपकरणों की मदद से ऑक्सीजन भरकर नवजीवन प्रदान किया जा सकता हैं। 

#श्वेता सिन्हा

Saturday, 15 June 2019

मेरी बिटिया के पापा


कल रात को अचानक नींद खुल गयी, बेड पर तुम्हें न पाकर मिचमिचाते आँखों से सिरहाने रखा फोन टटोलने पर टाईम देखा तो 1:45 a.m हो रहे थे।बेडरूम के भिड़काये दरवाजों और परदों के नीचे से मद्धिम रोशनी आ रही थी , शायद तुम ड्राईंंग रूम में हो, आश्चर्य और चिंता के मिले जुले भाव ने मेरी नींद उड़ा दी। जाकर देखा तो तुम सिर झुकाये एक कॉपी में कुछ लिख रहे थे।इतनी तन्मयता से कि मेरी आहट भी न सुनी।
ओह्ह्ह....,ये तो बिटिया की इंगलिश  लिट्रेचर की कॉपी है! तुम उसमें कुछ करैक्शन कर रहे थे।कल उसने एक निबंध लिखा था बिना किसी की सहायता के और तुमसे पढ़ने को कहा था , तब तुमने उससे वादा किया था आज जरूर पढ़ोगे, पर तुम्हारी व्यस्त दिनचर्या की वजह से आज भी तुम लेट ही आये और निबंध नहीं देख पाये थे। मैंने धीरे से तुम्हारा कंधा छुआ तो तुमने चौंक कर देखा और शांत , हौले से  मुस्कुराते हुये कहा कि ' उसने इतनी मेहनत से खुद से कुछ लिखा है अगर कल पर टाल देता तो वो निराश हो जाती न।'
ऐसी एक नहीं अनगिनत घटनाएँ और छोटी-छोटी बातें है बिटिया के लिए तुम्हारा असीम प्यार अपने दायित्व के साथ क़दमताल करता हुआ दिनोंंदिन बढ़ता ही जा रहा है। उसके जन्म के बाद से ही एक पिता के रूप में  तुमने हर बार विस्मित किया है।
मुझे अच्छी तरह याद है बिटिया के जन्म के बाद पहली बार जब तुमने उसे छुआ था तुम्हारी आँखें भींग गयी थी आनंदविभोर उसकी उंगली थामें तुम तब तक बैठे रहे जब तक अस्पताल के सुरक्षा कर्मियों ने आकर मरीजों से मिलने का समय समाप्त हो गया  कहकर जाने को नहीं कहा। उसकी एक छींक पर मुझे लाखों हिदायतें देना,उसकी तबियत खराब होने पर रात भर मेरे साथ जागना बिना नींद की परवाह किये जबकि मैं जानती हूँ 5-6  घंटों से ज्यादा सोने के लिए कभी तुम्हारे पास वक्त नहीं होता। उसके पहले जन्मदिन से ही भविष्य के सपनों को पूरा करने के लिए न जाने क्या-क्या योजनाएँँ बनाते रहे। बिटिया भी तो... उसकी कोई बात बिना पापा को बताये पूरी कब होती है! जितना भी थके हुए रहो तुम पर जब तक दिन भर की सारी बातें न कह ले तुम्हें दुलार न ले सोती ही नहीं, तुम्हारे इंतज़ार में छत से अनगिनत बार तुम्हारी गाड़ी झाँक आती है। 'मम्मा पा फोन किये थे क्या उनको लेट होगा? अब तक आये क्यों नहीं..? तुम्हारे आने के समय में देर हो तो अपना फेवरेट टी.वी. शो भूलकर सौ बार सवाल करती रहती है।'
जब तुम दोनों मिलकर मेरी हँसी उड़ाते मुझे चिढ़ाते हो,खिलखिलाते हो... भले ही मैं चिड़चिडाऊँ पर मन को मिलता असीम आनंद शब्दों में बता पाना मुश्किल है।

तुम दोनों का ये प्यार देखकर मेरे पापा के प्रति मेरा प्यार और गहरा हो जाता है, जो भावनाएँ मैं नहीं समझ पाती थी उनकी, अब सारी बातें समझने लगी हूँ उन सारे पलों को फिर से जीने लगी हूँ।
पापा को कभी नहीं बता पायी मैं उनके प्रति मेरी भावनाएँ, पर आज सोच रही हूँ कि इस बार उनसे जाकर जरूर कहूँगी कि उनको मैं बहुत प्यार करती हूँ।

तुम्हें अनेको धन्यवाद देना था ,नहीं तुम्हारी बेटी के प्रति तुम्हारे प्यार के लिए नहीं बल्कि मेरे मेरे पापा के अनकहे शब्दों को उनकी अव्यक्त भावनाओं को तुम्हारे द्वारा समझ पाने के लिए।

  #श्वेता सिन्हा

Friday, 14 June 2019

भूटान यात्रा-2

जयगाँव स्थित भूटान-प्रवेश द्वार
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हम जिस गाड़ी में सवार हुये उसमें हम तीन लोग यानि मैं,मेरी बिटिया और उसके पापा के साथ एक सरदार अंकल-आंटी,एक बंगाली अंकल-आंटी थे।
ड्रॉइवर मिलाकर कुल 8 लोग।
सबके साथ उनसे औपचारिक परिचय हुआ,फिर हमारा ड्रॉइवर जिसका नाम 'संगीत' था उससे बातें हुई।
मंझोले कद का दुबला पतला भारतीय जो भूटानी जैसा दिख रहा था। बहुत खुशमिजाज लगा, भूटान के बारे में उसे खासी जानकारी थी।
  हमलोग को जयगाँव के लिए निकलने में करीब साढ़े दस बज गये थे। उत्साह से लबरेज हंसते बतियाते समसामयिक विषयों कर चर्चा करते करीब डेढ़ घंटें के बाद हम जयगाँव की सीमा में प्रवेश किये। एक साधारण भारतीय अर्द्धविकसित कस्बाई माहौल लगा।
  सड़क के दोनों ओर अनगिनत ब्रांडेड और नान ब्रांडेड बड़ी-छोटी दुकानें सजी हुई थी रोजमर्रा के सामान के अलावा जरुरत की हर छोटी बड़ी वस्तुएं आसानी से उपलब्ध थी। कुछ भूटानी औरतें,लड़कियाँ खरीदारी करते सामान लिये आधुनिक कपड़ों में सड़कों पर दिख रहीं थी।
 उमस भरा मौसम था। भूटान की सीमा के इस पार कुछ मीटर की दूरी में एक होटल में हमारे रहने का प्रबंध था। सब लोग अति उत्साहित हो रहे थे। हमारे साथ इस घुमक्कड़ ग्रुप में करीब 34 लोग सम्मिलित थे। 
 रिसेप्शन लॉबी में सब तरह तरह की बातें कर रहे थे। रविवार होने की वजह से इमीग्रेशन ऑफिस बंद है जहाँ से हमें भूटान प्रवेश करने के लिए परमिट मिलेगा। अतः आज यही जयगाँव में रुकना है।
 भूटान के मौसम को लेकर सब बढ़-चढ़कर ज्ञान बघार रहे थे...शायद अंदर बारिश हो रही है और टेंपरेचर कम है ऐसा सुनकर कुछ लोग होटल रुम में सामान रखकर छतरी और विंडचिटर खरीदने निकल गये। हम तो अपने साथ गर्म कपड़े लेकर आये थे इसलिए निश्चिंत थे।
बाहर बहुत धूप और उमस थी इसलिए हमने सोचा कि शाम को निकलेंगे घूमने।
हाँलाकि आस-पास के बड़े-बड़े शो रुम, फुटपाथी दुकान कपड़े,जूते,क्रॉकरी और भी मन लुभाते आकर्षक सजावटी वस्तुओं ने और खास कर भूटान का प्रवेश द्वार देखने की उत्सुकता और मीठी की ज़िद ने हमें बाध्य कर दिया कि एक छोटा चक्कर लगा ही आया जाय।
 बाज़ार में खासी चहल-पहल थी थोड़ी दूर ही गये कुछ सजावटी वस्तुओं के सामान के दाम पूछे जो सामान्य लगे पर अनवरत गिरते पसीने और उमस से बेहाल हम ज्यादा न घूम सके। भूटान का द्वार को इस पार से देख-देख कर आहृलादित होकर सपने बुनते हम आइसक्रीम खाकर वापस आ गये।
 दोपहर का भोजन कर आराम कर रहे थे करीब चार बजे हमें रिसेप्शन हॉल में बुलवाया।
 हमारे ट्रिप संयोजक ने एक एजेंट बुलाया था (एक छोटे कद की भूटानी लड़की थी) जो हमारा भूटानी वीज़ा बनवाने में सहायक होती।
 वह ऐजेंट बारी-बारी से सबका पहचान-पत्र देख रही थी। पहचान-पत्र यानि वोटर आई डी या पासपोर्ट आधार कार्ड मान्य नहीं है।
 हम दोनों का वोटर आई डी  भी ओके था परंतु मीठी का आधार कार्ड,स्कूल आई डी या स्कूल डायरी मान्य नहीं था उसका बर्थ सर्टिफिकेट चाहिये
 वरना उसका प्रवेश परमिट नहीं बनेगा अब बर्थ सर्टिफिकेट जो कि हमारे पास फिलहाल मौजूद नहीं था। अब क्या करेंगे? कुछ पल के लिए हम स्वीच ऑफ हो गये। मीठी का रोना शुरु हो गया सुबक-सुबक कर। "हम को भी जाना है भूटान"।
 दूसरी सुबह सब 8 बजे इमीग्रेशन के लिए भूटान प्रवेश द्वार पर स्थित भूटानी शहर फेत्सुलिंग इमीग्रेशन ऑफिस पहुँचना था और हमारे पास सर्टिफिकेट नहीं था। मेरे फ्लैट पर और कोई नहीं था चाभियाँ मेड के पास थी। अगर किसी को भेजकर फ्लैट खुलवा भी लेते तो बर्थ सर्टिफिकेट के साथ अन्य महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं इसकी चिंता थी।
 कुछ सूझ नहीं रहा था कैसे इतनी जल्दी इंतजाम हो। शाम हो गयी थी सब जयगाँव घूमने निकल रहे थे हमारा तो मन ही उतर गया था और मीठी का रोना शुरु हो गया सुबक-सुबक कर। "हम को भी जाना है भूटान"।
 उसके पापा चिढ़ा रहे थे "हमलोग एक काम करते है तुम्हारे लिये इस होटल में सब इंतजाम कर देते हैं तुम रहो हमलोग घूमकर तुमको लेते जायेगे।"
 उसका बुक्का फाड़कर रोना और तेज़ हो जाता।
 अच्छा चलो छोड़ो ये सब हम लोग दार्जिलिंग और गंगटोक घूम आते हैं। चिढ़कर और रोने लगती वो।

 काफी सोच कर "इन्होंने" स्कूल की एक टीचर और अपने एल आइ सी एजेंट को को फोन किया।
 स्कूल चूँकि बंद था पर ऑफिस कुछ घंटों के लिए खुलता था उस टीचर ने कहा "सर आप परेशान न हो कल सुबह सबसे पहले स्कूल जाकर सर्टिफिकेट की कॉपी भेज देंगे।
 "एल आई सी वाले न भी कहा ऑफिस जाकर देखते है भैया।"
 थोड़ी उम्मीद की किरण जागी तो मन हल्का हुआ।
 मीठी को काफी मान मनौव्वल के बाद थोड़ा घूमने निकले। शाम की रौनक अच्छी लग रही थी।
 हमारे साथ आये लोग शॉपिंग कर रहे थे ,हमने कुछ नहीं खरीदा कौन लगेज़ भारी करे अभी से ही।
 वापस जल्दी ही लौट आये,अपने कमरे में आकर 
 वहीं हल्का फुल्का डिनर किये।
 अनमने मन से सब बिस्तर में दुबक गये।
 पर सुबह क्या होगा इस इंतजार में करवट बदलते कोई सो ही नहीं पाया।
क्रमश:.......

#श्वेता सिन्हा

चिड़़िया

चीं-चीं,चूँ-चूँ करती नन्हीं गौरेया को देखकर  मेरी बिटुआ की लिखी पहली कविता जो  उसने ५वीं कक्षा(२०१७) में लिखा था  और साथ में उसके द्वारा  बन...