Thursday, 13 September 2018

हिंदीःवर्तमान संदर्भ में


"किसी देश की सांस्कृतिक सभ्यता तभी समृद्ध होगी जब उस देश की राजभाषा का उचित सम्मान होगा।"

मात्र एक सुंदर भावपूर्ण पंक्ति से ज्यादा उपर्युक्त कथन का अभिप्राय हमने कभी समझा ही नहीं या यों कहें हिंदी की औपचारिकता पूरी करने में हम हिंदी को आत्मसात करना भूल गये।
सोच रही हूँ हिंदी दिवस की बधाई किसे देनी चाहिए? हिंदी बचाओ का नारा किस वर्ग के लिए है?  अनगिनत संस्थानों के द्वारा हिंदी दिवस मनाया जायेगा,गोष्ठियाँ होंगी और हिंदी की दुर्दशा पर रोया जायेगा। तरह -तरह की संकल्पनाएँ बनेंगी और सूची बनायी जायेगी, हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए क्या-क्या करना चाहिए फिर फाइलों को अलमारियों में सजा दिया जायेगा। 
सरकारी अनुदान की मोटी राशि से खरीदी गयी पुस्तकें बिना लोगों तक पहुँचे साज़िल्द सम्मान के साथ अलमारियों में कैद हो जायेंगी। 
ऐसी बधाई दे-लेेकर हम क्या योगदान कर रहे हैं? यह तो सच है हिंदी को राजभाषा का मान दिलाने में हम अब तक असफल रहे हैं। हिंदी की दुर्गति का ढोल पीटने का कोई मतलब नहीं क्योंकि इसकी ऐसी हालत की  जिम्मेदार कहीं न कहीं हमारी मानसिकता और त्रुटिपूर्ण शिक्षा-पद्धति है। बच्चों के जन्म के साथ बड़े स्कूलों में रजिस्ट्रेशन के लिए प्रयासरत अभिभावक बच्चों को अंग्रेजी का पानी दूध के साथ घोलकर पिलाना प्रारंभ कर देते हैं। हिंदी बोलने वालों को ऐसे देखा जाता है मानो उन्होंने कोई अपराध कर दिया हो,वो अनपढ़ और गँवार हों।
आज समाज का हर वर्ग अपनी प्रगति के लिए अंग्रेज़ी से जुड़ने की इच्छा रखता है , प्रत्येक अभिभावक अपने बच्चों का सुखी भविष्य, अंग्रेज़ी माध्यम की पढ़ाई में देखते है और सामर्थ्य के अनुसार पूरी भी करते है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के ७२ साल पश्चात भी अपनी देश की सभ्यता और संस्कृति में घुलने के प्रयास में राजभाषा हिंदी की आत्मा आज भी बिसूर रही है।
क्या बिडंबना है हज़ार साल पुरानी हिंदी को गुलाम बनाने वाली अंग्रेजी आज शान से परचम लहराये अभिजात्य वर्ग के बैठकों से लेकर गली-मुहल्ले तक उन्मुक्तता से ठहाका लगा रही है और हिंदी अपने ही घर में मुँह छुपाये शरम से गड़ी जा रही है।
 हिंदी माध्यम से पढ़ने वालों को एक वर्ग विशेष से जोड़कर देखा जाता है जो अविकसित है और कुछ नहीं तो फिसड्डी का तमगा तो मिल ही जाता है,हिंदी पढ़कर पेटभर रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल से होता है , आखिर क्यों हमारी शिक्षा-प्रणाली को इतना समृद्ध नहीं किया गया कि हम इतने अशक्त होकर विदेशी भाषा का मुँह ताकने को मजबूर हैं।
  एक तथ्य ये भी है कि साधारण आदमी भले हिंदी से कोई लाभ भले न ले पाया हो पर हिंदी को व्यावसायिक रुप से भुनाने वालों की कमी नहीं है। जिन्हें हिंदी का "ह" भी नहीं पता वो बेवसाईट और हिंदी पत्रिकाओं के मालिक बनकर लाभ कमाते दिखते हैं।
इस व्यावसायीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण है फिल्म जगत। 
कभी-कभी तो तथ्यों और आंकड़ों पर भरोसा करने का मन नहीं होता।
आप कभी गौर करिये नेट पर,सोशल साईट्स पर हिंदी का कितना वर्चस्व है किसी भी पर्व-त्योहार या खास मौकों पर हिंदी मैसेजों की बाढ़ सी आ जाती है। उस समय हम सोच में पड़ जाते है कि यह फ़ैशन है जो चलन में है या हिंदी के प्रति हमारा अतुलनीय प्रेम!

यहाँ हिंदी को मान देने का मतलब प्रादेशिक और आँचलिक भाषाओं का विरोध कतई नहीं।
विविधताओं से परिपूर्ण हमारी भारतीय संस्कृति के लिए एक प्रचलित कहावत है-

"चार कोस में पानी बदले और सौ कोस पर बानी"

संभवतः हमारे देश की क्षेत्रीय और आंचलिक  भाषा की उत्पत्ति का स्रोत कमोबेश हिंदी या संस्कृत है। अनुसरण करने की परंपरा के आधार पर मनुष्य जिस क्षेत्र में रहा वहाँ की भाषा,खान-पान,रहन-सहन को अपनाता रहा।  इन विविध भाषायी संस्कृति को जोड़ने का माध्यम हिंदी न होकर अंग्रेजी का बढ़ता प्रचलन हिंदी के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक प्रतीत होने लगा है।
तत्सम,तद्भव,देशज,उर्दू शब्दों का माधुर्य घुलकर हिंदी को और विस्तृत स्वरूप प्रदान करने में सहायक है। चिंता का विषय है हिंग्लश होती हिंदी और वर्तनी संबंधी त्रुटियाँ। शुद्ध हिंदी लिखना आज की पीढ़ी के लिए बेहद कठिन कार्य है। स्कूलों में हिंदी के सिखाने वाले या तो कम जानकारी रखते हैं या बच्चों की छोटी-छोटी अशुद्धियों पर ध्यान नहीं देते,सिखाने के नाम पर खानापूर्ति भी हिंदी के त्रुटिपूर्ण गिरते स्तर की वजह है।
यहाँ हमारी राजभाषा के मान के लिए की गयी  अभिव्यक्ति का मतलब अंग्रेजी भाषा का विरोध भी नहीं है। पर हाँ,अंग्रेज बनते भारतीयों तक यह संदेश अवश्य पहुँचाना है कि आपके देश की राजभाषा आपका अभिमान बने तभी आप आत्मसम्मान और गर्व से दूसरे देशों के समक्ष गौरव की अनुभूति कर पायेंगे।

 हिंदी साहित्य में बहस का प्रचलित मुद्दा रहता है क्या लिखा जाय? किस तरह की भाषा प्रयुक्त की जाय? चिंतन क्या हो? इत्यादि।
मेरा मानना है सबसे पहले तो हिंदी साहित्य के स्तंभ हमारे आदर्श और साहित्य को नवीन दिशा प्रदान करने वाले महान साहित्यकारों के महान सृजन से आज के लेखकों की तुलना बंद करनी चाहिए। कोई भी किसी की तरह कैसे हो सकता है? सभी का स्वतंत्र अस्तित्व और विचार है। बदलते काल का प्रभाव तो लेखन में पड़ेगा ही।
एक विनम्र निवेदन है स्वयं को साहित्य के झंड़ाबदार बतलाने वालों से- कृपया, आपको यह समझना जरुरी है कि समयचक्र में कभी भी एक सा नहीं रहता है। परिस्थितियों के अनुसार मानव के विचारों में परिवर्तन स्वाभाविक है।
रचनात्मकता का पैमाना तय करना उचित नहीं है। क्या लिखा जाय, कितना लिखा जाय,किस  पर लिखा जाय इन पर बहस करने का मतलब नहीं।
क्लिष्ट या सरल लिखना अपनी क्षमता और रुचि पर निर्भर है।  
हाँ,जो भी लिखा जाय उसकी भाषा शुद्ध हो,वर्तनी संबंधी अशुद्धियों का ध्यान रहे यह जरुरी है। 
"आने वाली पीढ़ी आपसे वही सीख रही है जो आप सिखा रहे हैं इस बात का ध्यान रखना हम सभी रचनाकारों की मूल ज़िम्मेदारी है।"

अंत में बस इतना ही कहना है वर्तमान समय में
हिंदी को नारों की नहीं हमारे विश्वास की जरुरत है।
हिंदी को दया की नहीं सम्मान की आवश्यकता है।
उधार की भाषायी संस्कृति की चकाचौंध में खोकर कृपया अपनी आत्मा को नष्ट न करें।

 -श्वेता सिन्हा 


sweta sinha जी बधाई हो!,

आपका लेख - (हिंदी:वर्तमान संदर्भ में )आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है |




16 comments:

  1. वाह....
    जय हिन्दी
    सादर

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  2. जायज सवालों को उठाती तहरीर!

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    1. सादर आभार आपका विश्वमोहन जी।

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  3. प्रिय श्वेता - बहुत ही सराहनीय लेख | अपने बहुत ही विचारणीय मुद्दों को शब्दांकित किया है |आज के बच्चे कल के नागरिक हैं | अपनी संस्कृति और भाषा के प्रति इनका रुझान बढ़े इसके लिए हर संभव प्रयास होना चाहिए |वर्तनी सम्बन्धी सुधर तो हरेक के लिए जरूरी है कोई छोटा हो बड़ा | भाषा की शुद्धता का हर हाल में ध्यान रखा जाना चाहिए | बहुत विसंगतियां हैं भाषा के सही अर्थों वाले विकास में | स्कूलों में भी हिन्दी के उत्थान की दिशा में यथोचित व्यवस्था प्राय नहीं है | पर इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि हिन्दी को हेय दृष्टि से देखने की हमे आदत से हो गयी है जिसका कारण शायद ये भी है कि हिन्दी को रोजगार परकप्रवधानों से प्राय दूर रखा गया है | पर सभी चिंताओं के बावजूद हिन्दी की दिशा में बहुत सार्थक काम भी हो रहें हैं | जब दूर- दराज के गाँव - शहर से आम गृहिणियां तक कंप्यूटर और मोबाइल के जरिये -- ब्लॉग जगत से जुड़कर अपनी अभिव्यक्ति को अंबर सा विस्तार दे रहीं हैं तो हमें इसके उत्थान के प्रति आश्वस्त रहना चाहिए - यही ज्यादा बेहतर है | और हाँ अपने बच्चों में मातृभाषा और राष्ट्र भाषा के प्रति प्रेम तो हम माएं ही बेहतर जगा सकती हैं | यही हमारा हिन्दी के प्रति सच्चा और सार्थक योगदान होगा |

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    1. जी दी लेखपर आपकी.विचारणीय विस्तृत प्रतिक्रिया सराहनीय है। सकारात्मकता का दर्पण दिखलाने के लिए हृदयतल से आभार दी।

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  4. आप ने बहुत ही वास्तविक बातें लिखीं---पते की बात कही आप ने---जब तक हम सत्ता लोलुप सियासत के चुंगल से भाषा और साहित्य को मुक्त नहीं करवा पाते तब तक स्थिति में सुधार की अपेक्षा करनी भूल होगी---साहित्यकार का धर्म और मकसद साहित्यकार के ही हाथ में रहे तो अच्छा---
    इतनी अछि रचना के लिए हार्दिक बधाई भी स्वीकार करें---रेक्टर कथूरिया

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    1. जी सादर आभार आपका।

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  5. परिवर्तन संसार का नियम है ...
    भाषा के साथ भी ऐसा हो तो। ओ सतत रहती है शाश्वत रहती है ... हमें ख़ुद शुरुआत करनी होगी हिंदी का मान करना होगा तभी उसका मान होगा ...
    सुंदर आलेख विचारणीय ...

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    1. सादर आभार नासवा जी।

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  6. सटीक और सारगर्भित लेख
    बहुत बढ़िया

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    1. सादर आभार लोकेश जी।

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  7. बहुत ही प्रभावी लेख। आपका यह लेख हिंदी भाषा के प्रति आपकी चिंता और चिंतन को स्पष्ट कर रहा है। किंतु मेरी दृष्टि में आजकल स्थितियां उत्साहजनक दिखाई दे रहीं हैं। अब हिंदी में अधिक लिखा जा रहा है। अब अधिक लिखने वाले सामने आ रहे हैं।

    इंटरनेट ने आज एक बड़ा और वैश्विक मंच रचनाकारों को उपलब्ध कराया है। हिंदी में लिखा जा रहा है, क्योंकि हिंदी में खोजा जा रहा है और पढ़ा जा रहा है। गूगल ने भी खोज परिणाम में हिंदी के लेखों को वरीयता दी है। इंटरनेट के व्यावसायिक तत्व ने इसे अब काम और कैरियर की मानिंद एक प्रबल सामयिक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया है।

    ठीक है कि वर्तनी अशुद्धियां होंगीं। हो रही हैं। भाषागत अशुद्धियाँ होंगीं। हो रही हैं। किंतु उत्साहजनक बात यह है कि हिंदी में अब अधिक लिखा जा रहा है और पढ़ा जा रहा है। यह चिन्ता तो साहित्यकारों की है, चिंतन तो विद्वतजनों का है। आवश्यक भी है। क्योंकि भाषागत शुचिता साहित्य सृजन की अहर्ता है। क्योंकि मौलिक रचनाकार अपने अग्रज और शीर्ष रचनाकारों से सीखते हैं। सीखते आये हैं। अस्तु यहाँ पर बड़ा दायित्व विशेषज्ञों पर है। और आपकी चिंता भी आप के दायित्व के प्रति आपकी संवेदनशीलता का परिचायक है।

    हिंदी भाषा वैश्विक रूप में लिखी जाये, पढ़ी जाये एवं बोली जाये इसके धनात्मक परिणाम अब दिख रहे है। और ये परिणाम आनंदित कर देने वाली आशा की किरण की मानिंद हैं। सादर

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    1. अमित जी, आपकी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया ने मेरी रचना को सार्थकता प्रदान की है। हिंदी को लेकर रखे गये आपके सकारात्मक विचार सच में सराहनीय है।
      सादर आभार आपका।
      हृदयतल.से आभारी हूँ।

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  8. आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 15 सितम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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