Tuesday, 28 August 2018

प्रेम का प्रतिदान


 स्टडी रूम के दरवाजे़ पर दस्तक़ से पाखी की तंद्रा टूटी जो बड़ी तन्मयता से टेबल पर झुकी काग़ज़ को रंगने में लगी थी।
 कमली कह रही थी,"मेम साहिब कोई मिलने आया है।"
 कौन आया है काकी? पाखी ने सर उठाये बिना पूछा।
 "कोई रजत साब हैंं।"
 पाखी की उँँगलियाँँ थम गयी कानों पर भरोसा न  हुआ विस्मय से काकी की ओर पलटी और दुबारा पूछा, कौन ?

 काकी ने वैसे ही कहा, "कोई रजत साब हैंं।"

 पाखी ने पूछा,कहाँ हैंं वो?

आपने बिठाया न उन्हें हॉल में।

 जाइये दो कॉफी बना लाइये  चीनी एक चम्मच ही डालियेगा और हाँ,आपने कल जो नारियल के लड्डू बनाये थे, लाइयेगा।

 पाखी ने पेन साइड में रखकर टेबल लैंप बंद किया और स्लीपर पैरों में डालती बाहर आ गयी।
 रजत को देखते ही पाखी ने सवालों की झड़ी लगा दी।
 पाखी एक ही साँस में बोलने लगी,कैसे हो? सीमा कैसी है?अकेले आये उसे लाना चाहिये था? एक तो इतने दिनोंं बाद आये हो और अकेले ही!
रजत उसकी व्यग्रता देखकर ठठाकर हँस पड़ा।अरे-अरे रिलैक्स मैडम साँस तो लीजिए। पहले आराम से बैठ जाओ तुम।

" सब ठीक है,सीमा भी बहुत अच्छी है तुम्हें याद करती रहती है। उसे भी नहीं पता मैं यहाँ आया हूँ।"
 दरअसल,
 तुम तो जानती हो मेरा अक़्सर टुअर लगा रहता है।
 यहाँ भी बस तुमसे और सृजन से मिलने आया हूँ।
 अभी एक घंटें में फ्लाइट है।

 सृजन कहाँ है?

 पाखी ने ठुनकते हुए कहा,यह क्या है? अभी तो आये और अभी ही जाना है।
 सृजन की आज इंपोर्टेंट मीटिंग है इसलिए वे देर रात तक आयेंंगे। तुम आज रुक जाओ, मिल लो, कल जाना।
 "अरे ! नहीं पाखी ये संभव नहीं मुझे जाना होगा
 अभी तो दिन के दो ही बजे हैं उसे आने में काफी देर है, इस बार मिलना न हो पायेगा। हम लोग जल्दी प्लान करते है फिर मिलेंगे।"

 कॉफी पीकर रजत उठ खड़ा हुआ जाने को, पाखी कार तक छोड़ने गयी तो अचानक जैसे रजत को कुछ याद आया।

अरे, जिस काम के लिए आया था वो तो भूल ही गया कहकर उसने कार की पिछली सीट से एक पैकेट निकालकर उसकी ओर बढ़ाया। पाखी असमंजस में पड़ गयी।
रजत कह रहा था करीब छ:सात महीने पहले मानव जी मिलने आये थे मेरे ऑफिस।
उन्होंने ही दिया है यह पैकेट तुम्हें देने के लिए,कह रहे थे तुम्हारी ही कोई चीज़ है , मैं जब तुमसे मिलूँ तो दे दूँ।

"मुझे माफ़ करना, इतने दिनों से आ नहीं पाया,आज ही मौक़ा मिला इधर आने का।"

इसके बाद रजत कब गया और कब वह अपने बेड रूम तक पहुँची उसे कुछ याद नहीं।
बेड रुम में आ कर बिस्तर पर आँखें मूँदकर लेट गयी।
मानव,इस नाम को भला वह कैसे भूल सकती है! उसके मन के नाज़ुक एहसास का वह पन्ना जो समय की गहराई में दब गया था आज फिर से फड़फड़ाने लगा।  धीरे से उँँगलियाँ फेरती उस पैकेट पर
उत्सुकतावश पैकेट को पेट पर रखकर खोलकर देखने लगी, रॉयल ब्लू वेलवेट का सुनहरी तारों से कढ़ाई किया हुआ हैंड पर्स दिखाई दिया।
उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गयींं, यह पर्स!
यादों की रेशमी कतरनेंं उसके आस-पास उड़ने लगींं। हौले से सर तक़िये पर टिकाये आँखें बंदकर यादों के समुंदर में डूबने-उतराने लगी जहाँ से भावों की लहरें आकर ज़ेहन का किवाड़ खटखटा रहीं थींं।

दूर तक फैले हरे पहाड़ों को अपनी श्वेत,पनीले आग़ोश में भरकर मचलते बादलों ने आसमान से पहाड़ तक मनमोहक रास्ता बना दिया था। उड़ते बादलों से भरी घाटियाँ धुँध में लिपटी किसी परी लोक-सी लग रही थींं। भोर का झुटपुटा फैला हुआ था हल्की ठंडी हवा चेहरे पर आ रहे बेतरतीब बालों को उड़ा रही थी, काला शॉल कंधे से सरककर पैरों के पास पड़ा था । पाखी को होश कहाँ वह तो मंत्रमुग्ध प्रकृति के इस अद्भुत रुप में खोयी थी।
अचानक कीनु की आवाज़ सुनकर वह चिहुँकी।
कीनु उसके हाथ पकड़कर झकझोर रही थी,
"मम्मा-मम्मा चलो पापा बुला रहे है।"
पाखी प्यार से मुस्कुराकर कीनु से बोली, "पापा से बोलो मैं आ रही हूँ।" कीनु वापस दौड़ पड़ी।
पाखी अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों को सँभालकर जैसे ही मुड़ी उसका दिल धक से रह गया।
ओह्ह्ह...वही आँखें फिर से...जाने कब से वह खड़ा निहार रहा है उसे। उसने पलकों को हौले से झुका लिया।
भोर की ओस की तरह मन हरी दूब पर उग आये नाज़ुक भावों को नरम उँँगलियों से छूने जैसा सिहर गया तन।  धीरे से अपने चेहरे पर आयी लटों को कान के पीछे खोंसकर काँपती उँँगलियों से दुपट्टा संभालती हड़बड़ाकर से उसके सामने से हटकर रेस्टोरेंट के अहाते में बने हट्स में सृजन और कीनू को ढ़ूँढने लगी। दोनों रजत,सीमा और पीहू के साथ बैठकर गरमागरम पकौड़े और चीज़ सैडविच का आनन्द ले रहे थे।
पाखी को देखकर सीमा बोल पड़ी,"आ गयीं मैडम पहाड़ों की प्रभाती सुनकर" सब खिलखिलाकर हँस पड़े। वह मुस्कुरा दी। उसके बैठते ही सृजन ने सैडविच का प्लेट उसकी ओर सरका दिया। वह चुपचाप सैडविच कुतरने लगी पर मन उन्हीं आँखों में उलझा हुआ था। खाते-खाते कनखियों से देखने लगी उसको जो दूसरी टेबल पर अन्य लोगों के साथ बैठा बीच-बीच में उसकी ओर देख रहा था। अजब-सी ख़ुमारी भरी हुई थी हवा में जैसे रजनीगंधा की खुशबू साँस में लिपट गयी हो।  जाने क्या बात थी उन आँखों में,उसकी धड़कनें तेज़ हो जातींं और मन अस्थिर हो जाता वो छटपटाने लगती है,  फूलों पर मंडराती तितलियों जैसी। न चाहते हुए भी उसका ध्यान उस पर चला जाता। उसका दिमाग़ करना बंद कर देता। पिछले दो दिनों से उसके दिलो-दिमाग़ पर उसने कब्ज़ा जमा लिया है। वे आँखें उसके साथ-साथ रहने लगी हैंं, हर घड़ी पीछा करती मुग्ध होकर उसको ताकती आँखों ने उसका सुकून छीन लिया है। उसने महसूस किया अवश मन को जिसे जितना खींचती उस ओर जाने से वह उतनी ही तेज़ गति से उसकी ओर भागता।
उसके विचारों पर विराम लगा जब सृजन ने कहा,"जल्दी करो पाखी सब गाड़ी में बैठ रहे हैं।"
उसने ठंडी हो रही कॉफी तीन घूँट में ख़त्म किया और जल्दी से आकर विंगर में अपनी विंडो वाली सीट पर बैठ गयी।
पाखी ,सृजन, कीनू और उसके जैसे अन्य परिवार
एक ट्रेवल ऐजेंसी के द्वारा पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग होते हुए कलिम्पोंग की मनमोहक वादी घूमने के लिए आए थे। फरवरी के अंतिम सप्ताह में जब कीनू की वार्षिक परीक्षा समाप्त होने लगी तो रजत और सीमा ने ज़िद करके सृजन को इस टूर के लिये बहुत मुश्किल से राज़ी किया था। रजत और सीमा,पाखी और सृजन के काफ़ी अच्छे पारिवारिक मित्र हैंं।
सृजन तो हमेशा की तरह आना ही नहीं चाहता था,पर इस बार रजत के साथ -साथ कीनू की ज़िद के आगे उसकी एक न चली।
 विवाह के आठ सालों में हनीमून के बाद यह पहला मौक़ा था पाखी का रजत और कीनू के साथ ऐसे कहीं घूमने आने का। सृजन को ज़रा भी शौक नहीं था घूमने का,उसका प्यारा साथी था तो बस उसका लैपटॉप और स्मार्ट फोन। अपने काम में आकंठ डूबे सृजन अन्य पुरुषों से बहुत अलग थे। शांत, मितभाषी सृजन ने कभी भी पाखी से अपने प्यार को प्रदर्शित नहीं किया।  सृजन के संयमित व्यवहार से पाखी को लगता सृजन उस पर ध्यान नहीं देते, उसकी परवाह नहीं करते।  अभी से ही रिश्तों में एक औपचारिकता-सी आना , सोचते हुए  वह उदास हो जाती थीअक़्सर।  वैसे तो सृजन उसके बिना बोले ही उसकी सुख-सुविधा का भरपूर ध्यान रखते। उसे पूरी स्वतंत्रता थी अपने मन-मुताबिक जीने की। पर कभी-कभी बंधन की ज़रुरत होती है वह चाहती थी सृजन उस पर अधिकार जमाये। उसके साथ समय व्यतीत करे। सृजन की उसके लिए बेपरवाही उसे और भी अकेला कर जाती। कान्वेन्ट एजुकेटेड, खिला गेहुँआ रंग, बड़ी - बड़ी पनीली आँखें पीठ पर छितराये भूरे- कत्थई बाल और भरा हुआ शरीर और ख़ुद में खोये रहने की आदत,यही थी 33 साल की पाखी की पहचान। इंग्लिश लिट्रेचर में पीएच.डी. की उपाधि हासिल की थी, उसने,2 वर्ष विख्यात कॉलेज से लेक्चरर के तौर नौकरी किया पर कीनू के आने के बाद उसने काम छोड़ दिया और पूरी तरह से गृहस्थी में रम गयी।
 ‎सृजन बहुत व्यस्त रहते थे एक मल्टीनेशनल कम्पनी में सी ई ओ की जिम्मेदारी सँभालना आसान भी नहीं था। वह समझती थी सृजन की व्यस्तता पर छुट्टियों में भी सृजन का लैपटॉप में उलझे रहने पर वह झुँँझला उठती थी।
ट्रेवल ऐजेंसी का संचालक रजत का परिचित था इसलिए उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई।
अचानक कार किसी स्पीड ब्रेकर पर उछली पाखी की सोच का सिलसिला टूट गया। उसे फिर से उन्हीं आँखों की आँच महसूस हुई। वह जानती है उसके बराबर वाली सीट के ठीक पीछे किनारे की तरफ बैठकर आँखों पर भूरे रंग का धूप का चश्मा लगाये वह उसे ही देख रहा होगा।
वह अनमनी-सी रमणीक चाय बगानों की ढलान पर पीठ पर टोकरी बाँधें सुंदर सुगठित औरतें और हँसते-खिलखिलाते बच्चों को देखने लगी।
12 बजे कार मिरिक की बेहद ख़ूबसूरत वादियों में बने टूरिस्ट लॉज में पहुँची। सबने खाना खाया और निकल पड़े मिरिक की ख़ूबसूरत वादियों में। दिन के 2 बजे थे धूप बहुत मीठी लग रही थी सबने फैसला किया मिरिक झील घूमने का और पैदल ही निकल पड़े वादियों में बिखरे सौंदर्य का आस्वादन करने। झिलमिल-झिलमिल करती झील के गहरे शाँँत पानी पर बिखरा अद्भुत सौंदर्य देखकर पाखी तो किलक पड़ी। झील के चारों ओर बने करीब तीन किलोमीटर पैदल पथ पर सब उड़ने लगे तितली बनकर। पाखी भी रंग-बिरंगे जंगली फूलों को उत्सुकता से देखती अपने कैमरे में हर दृश्य समेट लेना चाहती थी। विस्मय से भरकर परदेशी चिड़िया-सी बौरायी फुदकने लगी। 
अचानक उसे एहसास हुआ उसके आगे-पीछे दूर-दूर तक कोई नहीं। वह घबराकर जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाने लगी एक मोड़ पर अचानक हड़बड़ाहट में उसके दाँयें पाँव के नीचे एक पत्थर आ गया और पैर मुड़ गया वह दर्द से कराह उठी , लड़खड़ाकर गिरने वाली थी कि दो बलिष्ठ हाथों ने उसे थाम लिया।
एक पल में वह उसी की बाहों में थी। वह चौंक पड़ी,
ये चिरपरिचित ख़ुशबू ,वही था गहरी आँखोंवाला।  वह दर्द भूल गयी उस पल दिल की धड़कनें बेकाबू हो गयींं, हड़बड़ाकर अलग होना चाहा उसने कि पैर में बहुत तेज़ दर्द का एहसास हुआ। दर्द की लकीरें उसके चेहरे पर पसर गयींं,पाखी एक पग भी न बढ़ सकी। उसने उसे सहारा देकर किनारे एक पत्थर पर बैठाया और अपने कंधे पर टंगे एयरबैग से पानी की बॉटल उसकी ओर बढ़ायी,उसने उसकी ओर बिना देखे ही सर न में हिलाया।
उसने चुपचाप साधिकार उसकी काँपती हथेलियों को पकड़कर बोतल खोलकर उसे थमा दी। जब तक वह घूँट-घूँट पानी पीने लगी तभी अपने दोनों पैर मोड़कर उसके घुटनों के पास बैठ गया वह, मूव का स्प्रे निकाला और उसके पैरों के अँगूठें को धीरे से अपनी उंगलियों से पकड़ा,पाखी के पूरे शरीर में एक करंट दौड़ने लगा उसने पैर सिकोड़ लिये।
 उसने एक नज़र पाखी पर डाली, कुछ नहीं कहा उसका पैर हल्के से दबाब देकर आगे खींचा और अपने मजबूत पंज़ोंं में लेकर स्प्रे कर दिया। दो-चार मिनट लगे, उसने बैग में बोतल और स्प्रे रखकर अपना बैग पूर्ववत कंधे पर टाँग लिया फिर अपनी बाँयी हथेली पाखी की ओर फैला दिया। पाखी एक क्षण उस हथेली से निकली महीन रेखाओं के रेशमी एहसास में बंध गयी  फिर भावनाओं को सख्ती से कुचलकर उठ खड़े होने का प्रयास किया पर लड़खड़ा गयी, फिर से उसकी बाहों में । पाखी को महसूस हो रहा था जैसे वह रुई-सी हल्की हो गयी है। हाथ-पैर,दिमाग़ सब सुन्न हो गये, कुछ सोच नहीं पा रही थी उसके वजूद ने मानो किसी सम्मोहन में बाँध लिया था।
शाम काझुटपुटा,गुलाबी सूरज की नशीली किरणों में भीगती, मन को पिघलता महसूस किया उसने,उफ़! ये क्या पागलपन है अपने इस विचार से खीझ उठी। तभी उसने उसे अपनी बाहों से सीधा खड़ा किया, और सहारा देकर चलाने का उपक्रम किया। तभी उसे ढूँढ़ते हुये सृजन और रजत आ गये। सृजन को देखकर पाखी मानो किसी स्वप्न से जाग गयी।
सृजन उसे देखकर चिंतित हो उठे तो उसने कहा,
घबराने की बात नहीं,ज़रा-सा पैर मुड़ गया है मैंने स्प्रे कर दिया है कल तक ठीक हो जायेगा। उसके  बाद पाखी को कुछ याद नहीं रजत,सृजन और उसने क्या बात की ,कैसे वो वापस टूरिस्ट लॉज आयी। ख़्वाबों में डूबी उलझी-उलझी अपने कमरे में आ गयी।
रात के तीन बजे थे सृजन और कीनू बेसुध सो रहे ।  पाखी की आँखों में दूर-दूर तक नींद का नामोनिशान नहीं था मख़मली रजाई में लिपटी बस सोचे जा रही थी। क्या हो गया है उसे क्यूँ मन को बाँध नहीं पा रही बहती जा रही है भावों की सरिता में, बरसों से चट्टानों पर जमी काई को बहा देना चाहता है मन पर, वह बहना नहीं चाहती किनारों पर उपेक्षित रहकर नदी का हिस्सा होने का सुख ही उसके अस्तित्व की पहचान है। भावों के भ्रम में उलझकर स्नेह के धागों में गाँठ पड़ जाये ये ठीक नहीं। पर ऐसा क्यूँ हो रहा है उसके साथ, समझ नहीं पा रही थी वो, कोई कमी तो नहीं सृजन में, सुखी तो है वो हर तरह से फिर मन के भावों का ऐसे किसी अनजान के लिए अंखुआना... मन की तृष्णा के पाश, अकाट्य प्रश्नों के जाल में उलझी वह सोचे जा रही थी..।
दो दिन पहले जलपाईगुड़ी के एक होटलएक वेटिंग हॉल अपने ग्रुप के दूसरे साथियों से मिलवाया था रजत ने।
इसी ग्रुप में शामिल था वो...."यह है मानव", रजत ने कहा और अनायास ही दोनों की नज़रें मिली थी। जाने कैसा सम्मोहन था उन गहरी काली आँखों में वो ऐसी डूबी कि अब तक बाहर आने को छटपटा रही है। लगभग चालीस वर्षीय मानव विधुर थे विवाह के छः माह के बाद पत्नी की एक कार एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी उसके बाद से घरवालों के लाख समझाने पर भी उसने विवाह नहीं किया। अपने दो मित्रों के साथ आये थे इस टूर में। गंभीर व्यक्तित्व, साँवले चेहरे,गहरी आँखें और सुगठित शारीरिक सौष्ठव किसी को भी सहज आकर्षित करने में सक्षम थे। उनकी सौम्यता,विनम्रमता और सहृदयता के किस्से सुन-सुनकर उनके प्रति आकर्षण और बढ़ रहा था। उनकी हाज़िर जवाबी,समसामयिक परिदृश्यों पर गहन विश्लेषात्मक विवेचन, मददगार स्वभाव पाखी के मन को मोहते चले गये। आँखों ही आँखों में हो रही बातों ने उसका सुकून छीन लिया है, वो सोचते-सोचते धीरे से बेड से उतरी...और अपने कमरे का दरवाजा खोल कर से बाहर आ गयी। एक कतार में बने कमरों के आगे लंबा चौड़ा बरामदा था।  नीरवता फैली हुई थी, पीली रोशनी में नहाया बरामदा उँघ रहा था। सब अपने लिहाफों में कितने सुकून से सोये होंगे। बरामदें से पाँच सीढ़ी उतर कर होटल के गार्डन में आ गयी। फिर धीरे-धीरे चलकर कोने में चीड़ के चुपचाप खड़े पेड़़ों के नीचे बने पत्थर के बेंच पर बैठ गयी। लंबें सीधे सफेद खड़े युक्लिप्टस की डालियों पर रुई से बादलों के फाहे की बीच लेटा चाँद उसे अपनी ओर खींचने लगा, वो विचारों में उलझी जाने कब तक ऐसे ही बैठी रही। घंटों सुनती रही नीरवता में अपने हृदय का स्पंदन।
चिड़िया जाग गयी थी दिन निकलने लगा था हल्के-हल्के धुएँ के बादल चारों ओर फैलने लगे थे वो वापस कमरे में जाने के लिए उठना चाहती थी तभी मानव की आवाज़ सुनकर चौंक गयी।

"अरे आप जग गयी"?

"पैर का दर्द कैसा है"?

"आपने स्लीपर नहीं पहना"?

वो सकपका गयी नाइट गाउन में ही बाहर आ गयी थी।  शॉल को और अच्छे से लपेटकर बालों पर हाथ फेरते हुये धीमे स्वर में कहा,

जी,"  टहलने आयी थी।"

" मैं अब ठीक हूँ"।

मानव को उसकी घबड़ाहट समझ न आयी उसे लगा शायद पाखी उसके व्यवहार से उसे उच्श्रृंखल समझ रही है। इसलिए जब वो उठकर जाने लगी तो मानव ने कहा,
"बैठ जाओ पाखी,मुझे कुछ कहना है तुमसे।"

पाखी नज़रें झुकाये बेकाबू दिल की धड़कनों को सँभालती काँपते-थरथराते पलकों को नीचे किये हुये खड़ी ही रही ।

मानव ने कहना शुरु किया,
पाखी, अपने जीवन के बारे में क्या कहूँ, पिता की असामयिक मृत्यु के बाद किशोरावस्था में ही पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को सँभालना पड़ा। तीन बहनों की शादी और दो भाइयों की पढ़ाई फिर नौकरी के बाद मेरा विवाह हुआ,पत्नी के साथ अभी जीवन समझना शुरु किया था कि एक हादसे ने उसका साथ छीन लिया। मैंने नियति मानकर इसको भी स्वीकार किया।
तुम्हें जब से देखा है जाने क्या हो गया है। कोई अदृश्य डोर खींचती है तुम्हारी ओर मैं अवश हो जाता हूँ। मैं स्वभावतः ऐसा नहीं हूँ, पर क्या  कहूँ ये अनुभूति तुम्हारे प्रति मेरी, मेरी समझ से परे है। तुम्हें मेरे आचरण से जो उलझन हो रही है मैं समझ सकता हूँ आइंदा कोशिश करुँगा तुम परेशान न हो।
पाखी मौन रही और मानव छोटे-छोटे क़दमों से राहदारी नापने लगा।
पलभर पाखी अपनी पलकों पर उतर आयी नमी को रोकने की नाकाम कोशिश करती रही और मोती की बूँदे झरकर गालों पर फैल गयींं। पाखी अनमनी-सी अपने कमरे में लौट आयी। दोनों पापा-बेटी बेसुध सोये थे। सृजन के माथे पर बिखरी लटें और मासूमियत से भरा चेहरा देखकर वह सब भूलकर मुस्कुरा पड़ी। घड़ी देखी उसने अभी 5:30बजे हैंं।  घूमने जाने के लिए 9 बजे का समय तय है। अब  थकान महसूस करने लगी पाखी धीरे से लिहाफ़ खींचकर लेट गयी।
पाखी-पाखी, की आवाज़ सुन कर कुनमुनाई अलसायी आँखें खोली तो सृजन कह रहे थे पाखी उठो न सब इंतज़ार कर रहे हमारी वजह से देर हो जायेगी।
फिर जल्दी-जल्दी तैयार होकर पाखी ने विंगर में आकर बैठ गयी,ख़ु द को व्यवस्थित कर आस-पास दृष्टि फेरने लगी जैसे कुछ ढूंढ़ रही हो तो मानव को पीछे न पाकर वह बेचैन हो गयी। सहसा उसने देखा, आज मानव अपनी नियत सीट पर न बैठकर उसके आगे की सीट पर बैठा था। पीछे मुड़कर अपने मित्र से कुछ पूछ रहे थे पाखी को अपनी ओर देखता पाकर धीरे से सर घुमाकर खिड़की के बाहर देखने लगा। पाखी को मानव का ऐसा करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था, पूरे रास्ते बार-बार उसका ध्यान आगे बैठे मानव पर चला जाता,पर वह बे-ख़बर अपनी दुनिया में व्यस्त था।
अगले दो दिन सब को कलिम्पोंग में रहना था , सबने ख़ूब आनन्द लिया जीभर कर घूमे पर वहाँ की खूबसूरत वादियों में पाखी को अपनी उदासी का कोई कारण नहीं समझ आ रहा था। तिस्ता की धार पर अठखेलियाँ करती  कंजनजंगा की मनोरम चोटियों से प्रतिबिम्बत सुनहरी किरणों को छोड़ वो मानव के चेहरे पर फैली नरम धूप की अठखेलियाँ देखती, थोंगशा गोंपा मठ की शांति  में अपने अशांत मन की अनगिनत बातें सुनती।  दियोले बाग़ के ख़ूबसूरत पेड़ों की क़तार के बीच से उन्हें देखकर रोमांचित होती,उसने एक-दो बार मानव से बात करने की कोशिश भी की पर मानव का औपचारिक व्यवहार देख उसकी आँखें भर आती। दुबारा कभी मानव को अपनी ओर देखते उसने नहीं पाया न ही बात करने की कोई उत्सुकता ही देखी उसने। आमना-सामना होने पर भी वे चुपचाप आगे बढ़ जाते।

अचानक जैसे किसी गहरी नींद से जागी हो वो
मम्मा-मम्मा कहकर कीनु उसे हिला रही थी।
पाखी ने उसे देखकर पूछा 5 बज गये क्या?
तुम्हारी ट्यूशन टीचर चली गयी आकर?
कीनु ने कहा हाँ मम्मा और उसकी भरी आँखें देखकर पूछने लगी,क्या हुआ मम्मा तबियत ठीक है न?
पाखी ने मुस्कुराकर कहा, हाँ सोना सब ठीक है ज़रा सर-दर्द है। थोड़ा सो लूँ तो ठीक हो जायेगा।
"ओके मम्मा आप सो जाओ मैं तृषा के साथ खेलने जा रही हूँ।"
पाखी धीरे से मुस्कुरायी।
कीनु हौले से उसका माथा चूमकर बाहर चली गयी।
पाखी फिर से टूटी कड़ियाँ जोड़ने लगी।
आने के एक दिन पहले सबने जमकर शॉपिंग की।
पाखी ने भी चिर-परिचितों के लिए और घर के लिए कुछ बेहतरीन हैंंड-मेड वस्तुयें खरीदीेंं, अंत में अपने लिए एक बेहद आकर्षक नेवी ब्ल्यू हैंड-पर्स और मोतियों वाले कान के बूँदें पसंद किये पर हाथ में पर्याप्त रुपये न थे और सृजन आस-पास नहीं दिख रहे थे इसलिए उसने अपने लिए जो सामान लिये थे उसे निकलवा दिये।
अंतिम दिन सब वापसी की तैयारी कर रहे थे एक-दूसरे को फोन नं, ई-मेल आई डी,होम एड्रेस के आदान-प्रदान में लगे थे।  विचारों के संघर्ष में भावों से हारती पाखी ने मानव से एक बार बात करने के लिए,उसे ढूँढती रही पर पता चला मानव को कोई ज़रूरी काम था इसलिए वह सुबह ही निकल गये है वापसी के लिए। उसे ऐसी उम्मीद तो नहीं थी, ऐसी भी क्या बे-रुख़ी निराश,हताश पेड़ोंं के झुरमुट में मुँह को दुपट्टे में छुपाये पाखी ख़ूब रोयी।

घर लौटने का उल्लास सबके चेहरों पर छाया हुआ था। हँसी-खिलखिलाहट से पूरा ग्रुप गुंजित हो रहा था। पर पाखी चुपचाप मुस्कान चिपकाये सबके साथ होकर भी सबसे जुदा ख़ुद मैं ग़ुम थी।
अपनी मनोदशा को छुपाने की चेष्टा करती पाखी ने जबरन सबके साथ ख़ुश रहने का भरसक प्रयास किया। सृजन ने उससे पूछा भी उसकी उदासी की वजह पर वह हँसकर सफ़र की थकान की वजह बताकर टाल गयी।

घर वापस आकर सृजन से पाखी का कुम्हलाया चेहरा गुमसुम आँखें देखी न गयींं फिर से पाखी को कॉलेज़ ज्वाइन करने का सुझाव दिया तो पाखी खिल उठी। उसने अपने पुराने कॉलेज में अप्लाई किया और संयोगवश उसे व्याख्याता के पद पर फिर से नियुक्ति मिल गयी। पाखी के जीवन की गाड़ी कीनु-सृजन,अपने काम और घर के तालमेल बैठाते हौले-हौले आगे बढ़ने लगी।
यादों के भँवर में डूबी पाखी ने व्याकुल होकर
पर्स को मुट्ठी में ज़ोर से भींचने का प्रयास किया तो उसे महसूस हुआ पर्स में कुछ और भी है।
काली-सी जंग लगी पर्स की चेन थोड़ी मशक्कत के बाद खुल गयी और उसमें से मोतियों वाला कान का बूँदा गिर पड़ा साथ में एक छोटा-सा काग़ज़ का टुकड़ा भी था। मारे विह्वलता के पाखी ने उसे उठाकर अधरों से लगा लिया।
काँपते हाथों से काग़ज़ को सावधानी से खोलकर पढ़ने लगी पर सारे अक्षर तो धुँँधले हो रहे थे वो पढ़ नहीं पा रही थी। उसने अपनी भरी आँखों को कुर्ते की आस्तीन से पोंछ कर पढ़ना शुरु किया

पाखी,

समझ नहीं आ रहा क्या सम्बोधन लिखूँ। पर संबोधन चाहे कुछ भी दूँ उससे कुछ बदल तो नहीं सकता न।
कुछ बताना चाहता था तुम्हें, याद है तुम्हें मिरिक की वो शाम जिसके बाद तुम रातभर सो न सकी,तुम रातभर बाहर बगीचे में बैठी रही थी, मैं अपने कमरे से तुम्हें देख रहा था तुम्हारी बेचैनी और कश्मकश से भरा चेहरा मेरे मन को धिक्कारता रहा तुम्हारी ऐसी दशा देखकर उसी क्षण मैंने फैसला कर लिया था कि मुझे तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चला जाना है।
उसके बाद मैंने जानबूझकर कर तुम्हारी सारी बातों को अनदेखा किया था। मेरे व्यवहार से जो तुम्हारे चेहरे पर पीड़ा की रेखाएँ बनती उससे कई गुना ज़्यादा मैं आहत होता। क्या करता मैं बोलो,कैसे तुम्हारे सुखी वैवाहिक जीवन के सुंदर घोंसले के तिनकों को नोंच देता। तुम्हारी मासूमियत,तुम्हारी सादगी का फायदा उठाकर कैसे प्रेम की पवित्रता को कलुषित करता।
भावों के तूफ़ान में बसा-बसाया घर तो नहीं तोड़ा जा सकता था न। मेरे जीने के लिए तो तुम्हारे हँसते-खिलखिलाते परिवार की प्यारी तस्वीर बहुत है।
आज जाने क्यों मन हो आया अपने मन का बोझ हल्का करुँ। नहीं जानता हूँ कभी तुम तक यह ख़त पहुँच पायेगा या नहीं।  तीन बार तुम्हारे शहर,तुम्हारे कॉलेज से बस तुम्हें देखकर वापस आ गया हिम्मत नहीं हुई तुम्हारे सामने आने की।
नहीं तुमसे किसी संपर्क में नहीं रहना चाहता हूँ मैं।
 कभी मेरा नाम आने पर तुम उदास न हो,आँसुओं से न भरींं हों तुम्हारी आँखें इसलिए यह सब कहना ज़रुरी लगा। बस तुम खुश रहो अपने सुखी परिवार में यही दुआ करता हूँ। किसी अनाम रिश्ते के लिए अपने जीवन के बहुमूल्य रिश्तों को कभी न खोने देना यही मेरे प्रेम का सच्चा प्रतिदान होगा।
हमेशा ख़ुश रहो।
                                      - मानव

ख़त मोड़कर होंठों से चूम लिया पाखी ने फिर माथे से लगाकर सीने में भींच लिया। आँसू भरी आँखों को पोंछ लिया उसने,  मन  मानव के पैरों में श्रद्धा से झुक गया। पर्स और कान की बूँँदे उठाकर पूजाघर में देवी माँ के चरणों में रख आयी। बेश-क़ीमती उपहार तो माँ का आशीष होते हैं सोच रही थी परसों अपनी शादी की सालगिरह पर यही पहनेंगी।
वापस कमरे में आ गयी बहुत हल्का महसूस कर रही थी आज पाखी।  बेडरूम की खिड़की खोल दिया उसने हवा का एक झोंका आकर उसके बेतरतीब से खुले बालों से खेलने लगा और वो फोन में व्यस्त थी, 
सृजन मीटिंग ख़त्म हो गयी तो आ जाओ न साथ में डिनर करेंगे आज मैं तुम्हारी पसंद का पनीर परांठा बना रही हूँ।

    --श्वेता सिन्हा



Thursday, 16 August 2018

मुझे कभी इतनी ऊँचाई मत देना...अटल जी



ठन गई! 
मौत से ठन गई! 

जूझने का मेरा इरादा न था, 
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, 

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, 
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई। 

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, 
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं। 

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, 
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? 

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, 
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा। 

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, 
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर। 

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, 
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। 

प्यार इतना परायों से मुझको मिला, 
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। 

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, 
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए। 

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, 
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है। 

पार पाने का क़ायम मगर हौसला, 
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई। 

मौत से ठन गई।

और काल ने अपने क्रूर प्रहार कर हमारे प्रिय युगपुरुष को हमसे छीन लिया।
मेरी राजनीतिक अभिरुचि सदैव न के बराबर रही है। परंतु बुद्धिजीवी वर्ग का मान रखते हुये सामान्य ज्ञान के लिए बेमन से ही सही पढ़ती-सुनती रही हूँ।
पर अटल जी इकलौते ऐसे राजनीतिक व्यक्तित्व है जिनसे मैं सदा प्रभावित रही।
अटल बिहारी वाजपेयीका नाम इतिहास के पन्नों पर सुनहरी स्याही से लिखा गया है जिसकी स्वर्णिम आभा युगों तक दैदीप्यमान रहेगी।

राजनीतिक नेताओं की छवि से अलग एक सहज,सरल,विवेकशील व्यक्तित्व जिन्होंने विपक्षी दल को भी अपनी वाकपटुता , ओजस्विता, निडरता और सांस्कृतिक मूल्यों के द्वारा सहज सम्मोहित कर लिया।
 अटल जी का जन्म 25 जनवरी 1924 ई. को मध्यप्रदेश मेंं स्थित ग्वालियर के शिंदे की छावनी में हुआ था। विद्वान शिक्षक और सम्मानित कवि पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी और माता कृष्णा देवी की संतान के रुप में जन्मे अटल जी ने ग्वालियर में रहकर अपनी शिक्षा पूर्ण की। राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर कानपुर के डी.ए.वी कॉलेज से प्राप्त की।

छात्र जीवन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक के सक्रिय सदस्य के रुप में काम किया।
फिर श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पं. दीनदयाल के संपर्क में आये और लंबे समय तक राष्ट्रधर्म,पांचञ्जन्य और वीर अर्जुन जैसी पत्रिकाओं का सफल संपादन करने वाले अटल जी को सत्य और नैतिकता का प्रणेता कहना उचित होगा।
12 बार सांसद और 3 बार प्रधानमंत्री रुप में जनप्रतिनिधि चयनित होने वाले वाजपेयी जी का सक्रिय राजनीतिक में पदार्पण 1955 में हुआ।
1968 से 1973 तक जनसंघ के अध्यक्ष रहे।
24 राजनीतिक दलों के गठबंधन की सरकार चलाने का करिश्मा वाजपेयी जी ही कर सकते थे जो उन्होंने भारत के 13वें प्रधानमंत्री के रुप में किया। एक गैर क्रांग्रेसी प्रधानमंत्री के रुप में अनेक चुनौतियों का बुद्धिमत्ता पूर्ण सामना कर कई महत्वपूर्ण कार्य किये।
अटल जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देकर भारत को गौरवान्वित किया और राष्ट्रभाषा को सम्मानित किया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को पहचान दिलाने वाले अटल जी ने परमाणु शक्ति के परीक्षण में अपना निडर और साहसिक योगदान हुआ।
पाकिस्तान के साथ रिश्तों को नया जीवन देने का प्रयास किया।

अटल जी नेहरु युगीन ससंदीय गरिमा के स्तंभ है। आज करोड़ो भारतीयों के लिए विश्वसनीयता और सहिष्णुता का प्रतीक हैं।
वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से परिपूर्ण और सत्यम् शिवम् सुंदरम् के विचारों को महत्त्व देने वाजपेयी सिद्धांतवादी राजनेता रहे।
इनकी वाकपटुता से प्रभावित होकर
लोकनायक जय प्रकाश नारायण जी ने कहा था,"इनके कण्ठ में सरस्वती का वास है।"
और नेहरु जी ने "अद्भुत वक्ता" की विश्वविख्यात छवि से नवाजा।
अटल जी देश सेवा,भारतीय संस्कृति,मानवीयता,राष्ट्रीयता तथा उच्च जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं।
भारत रत्न , पद्म विभूषण ,सर्वश्रेष्ठ सांसद, सबसे ईमानदार व्यक्ति जैसे अलंकरण से विभूषित ऐसी विभूति का अवतरण भारत के लिए गौरव का विषय है।

आज राजनीति के गिरते मूल्यों और गलाकाट प्रतियोगिता की संस्कृति से परे उनकी प्रार्थना प्रशंसनीय है-
  मेरे प्रभु!
मुझे कभी इतनी ऊँचाई मत देना,
गैरों को गले लगा न सकूँ
इतनी रुखाई मत देना

संवेदनशील कवि वाजपेयी जी की रचनाएँ बेहद हृदयस्पर्शी है।
आप भी पढ़िए उनकी कुछ रचनाएँ मेरी पसंद की
गीत नया गाता हूं


टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर

पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात



प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं

गीत नया गाता हूं


टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी

अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,



काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं

गीत नया गाता हूँँ


बाधाएँ आती हैं आएँ

घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,

पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

दूध में दरार पड़ गई।

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया? 
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए;
कलेजे में कटार गड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,
टूट गए नानक के छन्द
सतलुज सहम उठी,
व्यथित सी बितस्ता है; 
वसंत से बहार झड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता,
तुम्हें वतन का वास्ता;
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।


पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥

हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।

सादर श्रद्धा भावांजलि




-श्वेता सिन्हा